- rashmipatrika
अंगभूमि और दीपावली
शिव शंकर सिंह पारिजात
पूर्व सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी,
भागलपुर जिला प्रशासन।
डॉ0 रविशंकर कुमार चौधरी
इतिहास विभाग, सुन्दरवती महिला महाविद्यालय,
भागलपुर।
अंगभूमि और दीपावली
1. ‘‘जहाँ अवतरित हुईं महालक्ष्मी‘‘
पौराणिक कथा के अनुसार इस धरा पर ‘श्री‘ की देवी महालक्ष्मी का अवतरण समुद्र-मंथन से हुआ था जिसमें मथनी के रूप में मंदराचल पर्वत का उपयोग किया गया था और नाग बासुकी को ‘नेति‘ बनाया गया था। ऐसी मान्यता है कि भागलपुर से करीब 50 किमी दक्षिण भागलपुर-दुमका मार्ग पर बौंसी प्रखंड (बांका जिला) में स्थित मंदार पर्वत से देवताओं व दानवों के द्वारा समुद्र-मंथन किया गया था। मंदार की चट्टानों पर उत्कीर्ण लंबे धारीदार सर्पिले आकारवाले चिन्ह आज भी पौराणिक गाथा की स्मृतियों को ताजा कर देते हैं जिसके आख्यान विष्णु तथा नरसिंह व अन्य पुराणों सहित महाभारत में वर्णित हैं।
क्षीर सागर के मंथन से सुख, समृद्धि, आरोग्य, धन-धान्य सहित चौदह रत्न प्राप्त हुए थे जिनमें से अमृत कलश, ऐरावत व कामधेनु को ऋषिगण, कल्प वृक्ष को देवराज इंद्र और सुरा को देवताओं ने ग्रहण किया, वहीं भगवान विष्णु ने अपनी छाती पर कौस्तुभ मणि को धारण किया जिसे देवी लक्ष्मी ने अपने निवास-स्थान के रुप में चयनित किया। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु के साथ श्रीदेवी लक्ष्मी सदैव मंदार पर्वत पर विराजमान रहकर अंगवासियों को अपनी कृपा दृष्टि से अनुगृहित करती रहती हैं। यह भी मान्यता है कि देव-दानवों के बीच छीना-झपटी में अमृत की कई बूंदे अमृत कलश से छलककर इस क्षेत्र में गिरे थे जिसके कारण आज भी यहां की बनस्पतियां आरोग्य के गुणों से भरपूर हैं। मंदार के शिलाखंडों पर उत्कीर्ण भगवान् विष्णु व देवी लक्ष्मी के प्रसंगों से संबंधित असंख्य मूर्तियां इस पौराणिक गाथा के साक्षी स्वरुप प्रतीत होते हैं। बौंसी बाजार में स्थित मंदार मधुसूदन मंदिर में स्थापित भगवान् विष्णु की मनोहारी प्रचीन प्रस्तर प्रतिमा पूरे अंग क्षेत्र की आस्था का प्रतीक है।
2. ‘‘यहाँ विराजमान हैं कुबेर व गणपति‘‘
दीपावली के अवसर पर भगवान् शंकर के मित्र और लंकापति रावण के भ्राता कहलाने वाले धन के देवता कुबेर व सिद्धि विनायक-विघ्नहर्ता गणपति की अत्यंत महत्ता है। जहाँ कार्तिक माह की कृष्ण त्रयोदशी को ‘धनतेरस‘ के दिन धनाध्यक्ष कुबेर की आराधना की जाती है, वहीं दीपावली के अवसर पर घर-घर में गणेश पूजन होता है। श्री व समृद्धि दात्री महालक्ष्मी ईष्ट तो हैं ही। दीप-पर्व में कुबेर व गणेश के विशेष महात्म्य के कारण प्रचीन काल में अंग देश के नाम से विख्यात भागलपुर जिला के कहलगाँव अनुमंडल के अंतीचक ग्राम में स्थित विक्रमशिला बौद्ध विहार के भग्नावशेषों की खुदाई से प्राप्त कुबेर, जिन्हें बौद्ध मान्यता के अनुसार ‘जम्भल‘के नाम से सम्बोधित किया जाता है तथा भगवान् गणेश की मूर्तियों की चर्चा प्रासांगिक हो उठती है। आठवीं शतिब्दी के उत्तरार्ध में पाल-वंश के राजा धर्मपाल द्वारा स्थापित विक्रमशिला बौद्ध महाविहार का न सिर्फ ज्ञान-विज्ञान, अपितु कला व संस्कृति के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रहा। यद्यपि यह एक बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था और यहाँ विशेष रुप से तंत्रयान एवं वज्रयान का पठन-पाठन होता था, किंतु समन्ववादी दृष्टिकोण अपनाते हुए यहां ब्राह्मण विषयों का भी समावेश था। यही कारण है कि विक्रमशिला के उत्खनन से प्राप्त असंख्य मूर्तियों में न सिर्फ बौद्ध धर्म से संबंधित, वरन् ब्राह्मण धर्म व विभिन्न मत-मतांतरों से संबद्ध मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं जो काले कसौटी पत्थर, स्लेटी पत्थर, लाईम स्टोन, सफेद बलुआ पत्थर और धातुओं (खासकर कांसे से निर्मित) तथा मृण-मूर्ति फलक (टेराकोटा प्लैक्स) पर कलात्मक ढंग से अंकित हैं।
महाविहार के मोनास्टिक सेल्स के उत्खनन के क्रम में मिली जम्भल (कुबेर) की मूर्ति अद्वितीय है। बौद्ध धर्म में धन के देवता कुबेर को जम्भल कहा गया है। इसकी विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए अपनी पुस्तक ‘विक्रमशिला‘ में लाल बाबू सिंह कहते हैं कि जम्भल की यह प्रतिमा मुकुटधारी, माला पहने है तथा कमर व बांह के आभूषणों से सुसज्जित है। नृत्य की स्थिति में त्रिभंग मुद्रा वाली इस मूर्ति के दाहिने हाथ में (धन की) पोटली है और इसका बायां हाथ टूटी हुई अवस्था में है। शैलीगत दृष्ट से यह मूर्ति आठवीं-नवीं सदी की मानी गयी है। इसी तरह महाविहार के मुख्य मंदिर की निचली दीवारों में लगे मृणमूर्ति फलक पर भी जम्भल की एक मूर्ति उत्कीर्ण है जो अर्धपर्यकासन पर बैठे दिखाये गये हैं, जिनके पास में ही नीचे बैठे एक छोटे व पूंछदार पशु का मनोहारी चित्र अंकित है।
विक्रमशिला की खुदाई से गणेश की भी प्रतिमा प्राप्त हुई है जो अपने शैलीगत कारणों से विशिष्ट है तथा विविध आयुधों से युक्त है जिसका वर्णन करते हुए लाल बाबू सिंह कहते हैं, ‘आयुधों का क्रम इस प्रकार हैः नीचे दायें हाथ में अक्षमाला अर्थात रुद्राक्ष, उपर खड़ग्, परशू, और बायें हाथ में नीचे मोदक (लड्डू) और उपरी हाथ का आयुध टूटा हुआ है। केश-कला जटामुकुट शैली में है। मूर्ति के पीछे उड़ते हुए गंधर्वों को और गणेश के पैरों के पास मुषिक वाहन को बैठे दर्शाया गया है। शैलीगत विशेषताओं के आधार पर यह मूर्ति दशवीं सदी की मानी गयी है। इसके अतिरिक्त बौंसी (बांका) के मंदार पर्वत से भी गणेश की विशिष्ट मूर्तियां पाई गई हैं जिनमें से दो भागलपुर संग्रहालय में प्रदर्शित हैं। भागलपुर के सुलतानगंज की अजगैबी पहाड़ी पर भी भगवान् शिव व माता पार्वती के साथ गणपति की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।
3. ‘‘यहाँ दिवाली पर जलते थे एक लाख दीपक“
सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं से महिमामंडित व समुद्र मंथन का साक्षी रहे अंगभूमि के बांका जिला के बौंसी में स्थित मंदार पर्वत की चर्चा दीपावली के अवसर पर प्रासांगिक हो उठती है। विष्णु स्वरुप भगवान मंदार मधुसूदन, श्री व समृद्धि की देवी महालक्ष्मी, बुद्धि के देवता सिद्धिविनायक गणपति, आरोग्यदाता धनवंतरी, पुण्य प्रदायिनी कामधेनु सहित समुद्र मंथन से निकले नौ रत्नों की उद्गमस्थली होने तथा लक्ष्मी-नारायण की कृपा से अभिसिक्त होने के कारण मंदार क्षेत्र सदैव धन-धान्य-समृद्धि से परिपूर्ण रहा। इस कारण श्री-सम्पदा से युक्त यहाँ के निवासी-व्यापारियों द्वारा पुरातन काल में यहाँ दीपोत्सव का पर्व धूमधाम से अनुष्ठानपूर्वक मनाया जाता था तथा मंदार की तलहटी के पूरब दिशा में अवस्थित ‘लक्षदीप‘ मंदिर में एक लाख दीये जलाये जाते थे जो अपने आप में अनूठा है। ऐतिहासिक विवरणों में अंकित है कि प्राचीन काल में बौंसी एक समृद्ध नगरी थी जो ‘वालिसा नगर‘ के नाम से जानी जाती थी। यहाँ का व्यापार अत्यंत उन्नत अवस्था में था। भागलपुर जिला गजेटियर (1911) बताता है कि उन दिनों बौंसीवासियों के बीच यह कथन प्रचलित था कि इस शहर में 55 बाजार और 53 रास्ते तथा 88 तालाब थे।
बौंसी में दीपावली के अवसर मंदार की तलहटी में स्थित ‘लक्षदीप‘ मंदिर में यहाँ के निवासियों द्वारा एक लाख दीपक जलाये जाने के बारे में भागलपुर जिला गजेटियर (1911) बताता है कि ‘‘पहाड़ की तलहटी के निकट एक भवन है, जो कि अब खंडहर-सा हो गया है, जिसकी दीवारों पर अनगिनत छोटे-छोटे चौकोर खाने बने हुए हैं, जो कि स्पष्ट तौर पर दीपकों के रखने हेतु बनाये गये थे। यहाँ प्रचलित परम्परा के अनुसार दीपावली की रात को स्थानीय निवासियों के द्वारा इन चौकोर खानों में एक लाख दीये जलाये जाते थे जबकि प्रत्येक परिवार से यहाँ मात्र एक ही दीपक जलाने की अनुमति थी।‘‘ लक्षदीप मंदिर से करीब एक सौ यार्ड की दूरी पर एक पाषाण निर्मित भवन के भग्नावशेष हैं जिसकी छत पत्थर के स्तम्भों पर टिकी है। विशिष्ट शैली में निर्मित इस भवन के बारे में गजेटियर कहता है कि यह दक्षिण के चोल राजा से संबंधित है जिसके साथ मंदार के पापहारिणी (पपहरणी) सरोवर की गाथा और मकर संक्रांति के अवसर पर लगनेवाले बौंसी मेला की परम्परा जुड़ी है।
अंग क्षेत्र के दीपोत्सव की विशिष्ट परम्परा से जुड़ी मंदार का यह लक्षदीप मंदिर आज बिल्कुल भग्न अवस्था में है और इसका अस्तित्व मिटने के कगार पर है। ऊँचे चौकोर चबूतरे पर स्थित इसकी छत पूरी तरह से टूटकर गिर गयी है। चबूतरे का सामनेवाला भाग अभी अस्तित्व में है जिसकी दीवाल पर तथा उपर मंदिर तक जानेवाली सीढ़ी के दोनों तरफ दीपक रखनेवाले छोटे-छोटे चौकोर खाने देखे जा सकते हैं। इस चबूतरे उपर के मंदिर के सामनेवाले पत्थर के दो पीलर अभी भी खड़ी अवस्था में हैं जबकि पीछे का एक पीलर टूटकर गिर गया है। इसके बीच में बना वेदी भी भग्न स्थिति में है। इस वेदी में भी दीये रखने के खानें बने हुए हैं। ग्रामीण बताते हैं कि पहले मकर संक्रांति के अवसर पर बौंसी बाजार से निकलनेवाली रथ-यात्रा यहां तक आती थी और भगवान मंदार मधुसूदन की प्रतिमा को उस दिन भक्तों के दर्शनार्थ इस वेदिका पर रखा जाता था जो अब पास के मैदान में नवनिर्मित मंडप में रखा जाता है।
अपनी दुरावस्था से जार-जार हो रहे लक्षदीप मंदिर के चारों ओर घने झाड़-जंगल उग आये हैं और यह आम दर्शनार्थियों की नजरों से बिल्कुल ओझल हो चुका है। यही स्थिति निकट के चोल राजा के भवन व आस-पास के मंदिरों की भी है। यदि समय रहते इसके संरक्षण और रख-रखाव की व्यस्था न की गयी तो यह ऐतिहासिक-पुरातात्विक धरोहर बिल्कुल विनष्ट होकर अपना वजूद खो बैठेगा।