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अथर्ववेद के संदर्भ में दर्शन और परिवार
डॉ० पूजा गुप्ता
दर्शनशास्त्र विभाग
संताल परगना महाविद्यालय
(एस०के ०एम० यू०) दुमका
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अथर्ववेद के संदर्भ में दर्शन और परिवार
"परिवार" हमारे जन्म से ही हमारे साथ जीवंत एक ऐसा समूह है, जो हमें उत्पन्न ही नहीं बल्कि हमारे मानसिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत, अनेक भावात्मक ऊर्जा से जीवन को उन्नति की ओर ले जाता है। यह समाज का वह प्राथमिक अंग है, जिसके बगैर समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिवार के स्वरूप की बात करें तो दार्शनिक दृष्टिकोण में परिवार को कुछ विचारकों ने "मिश्रित जन समुदाय" या "लघु समाज" या फिर "लघु राज्य" के रूप में समझते हैं। सर्वप्रथम परिवार के आधार को सुनिश्चित करते हैं।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखाजाए तो परिवार का आधार प्राकृतिक, परंपरागत, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, राजनीतिक माना जाता है। मैकेंजी ने परिवार (फैमिली) को परंपरागतस्वीकार किया है। जिसमें कुछ लोग निश्चित संबंध में बंद कर गृहस्थ और नियमित अर्थ में जीवन व्यापन करते हैं[1]। वैदिक काल से ही यह एक प्रथा,संस्था,कुटुंबके रूप में व्यवस्थित दिखाएं पढ़ती है। जिसमें आर्यजन परिवार के रूप में एक इकाई बनकर रहा करते थे। तत्समय अनेक व्यक्ति एक साथ मिलजुल कर रहा करते। जिसमें परिवार में एक मुखिया होता था जो परिवार के सभी सदस्यों की देखरेख अथवा सामूहिक जीवन के फैसले भी लेता था। ऋग्वैदिक काल में परिवारका मुखिया "कुलप" नाम से संबोधितहोता था और परिवार एक कुल कहलाता था। और यह कुल मिलकरएक ग्राम में परिवर्तितहोता है, और कई ग्राम मिलकर एक विश में और कई विश मिलकरएक जन एव् कई जन मिलकर एक जनपत बनता था। जिसमें 16 जनपदोंका विवरण इतिहास में वर्णित है। स्वभावत: परिवार की उत्पत्ति आवश्यक रूप से आत्मरक्षा के संदर्भ में हुई, और संकुचित अर्थ में वासना की पूर्ति के लिए भी हुई। परिवार के सामान्य अर्थ और उसके आदर्श भावनाओं की व्याख्या के लिए अथर्ववेद बहुत धनी है क्योंकि अथर्ववेद के समानस्या सूक्त में कुटुंब के सभी व्यक्तियों के एक साथ एक जगह प्रेम पूर्वक निवास करने की प्रेरणा मिलती है। एक साथ भोजन - भजन करने, एक साथ दायित्व का निर्वाह करने तथा मिल जुलकर व्यवसाय में प्रवृत्त होने की भी प्रेरणा यत्र-तत्रविद्यमान है।
धर्म जाति के कितनेभी भेद हो, लेकिन जब बात बच्चे की पहली शिक्षा की आती है तो उनका पहला स्कूल उनका परिवार ही होता है। सभी समाजों में बच्चों को संस्कारित करने और सामाजिक आचरण या व्यवहार की सीख मुख्य रूप से परिवार से ही मिलती है, ताकि समाज की सांस्कृतिक विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को आसानी से मिल सके। नैतिक आचरण के अनुरूप व्यक्ति में सामाजिक मर्यादा की नीव परिवार से ही निर्धारित होती है। नर नारी के यौन संबंध भी मुख्यता परिवार के दायरे में ही निबंध होते हैं। औद्योगिक सभ्यता से उत्पन्न जन संकुल को यदि छोड़ दिया जाए तो व्यक्ति का परिचय मुख्यता उनके परिवार और कुल के आधार पर ही होते हैं।
मनुष्य को अपनेसंपूर्ण विकास के लिए समाज की आवश्यकता होती है। और इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए समाज की प्रथम इकाई के रूप में परिवार का उदय हुआ बिना परिवार के समाज की रचना करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।
अथर्ववेद परिवार और समाजदोनों ही महत्वपूर्ण विषयों के लिए पर्याप्त सामग्री प्रदान करता है। परिवार समाज की ही छोटी इकाई है, जो कर्तव्य परिवार के लिए बताए गए हैं, वह समाज पर भी लागू होते हैं। परिवार का एक नेता या गृह पति होना चाहिए, जिस के निर्देश में सब सुव्यवस्थित ढंग से कार्य चलता रहे।
सध्रीचीनान् व: संमनसंस्कृणोम्येकश्नुष्तीन्त्संवननेन सर्वान्।[2]
अर्थात् हम अपनेमन को समान भावना से ओतप्रोत बनाकर एक जैसे कार्य में प्रवृत्त करते हैं और आपको एक जैसा अन्न ग्रहण करने वाला बताते हैं। जिस कारण परिवार के सदस्यों में एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान और एकजुटता दिखाई देती हैं।
इसी के साथ परिवारमें सौहार्द आनंद एवं निरोगता हो।
यात्रा सुहार्द: सक्रतो मदन्ति विहान रोगं तन्व: स्वाया:।
अश्लोणा अग्डैरह्रुता: स्वर्गे तंत्र प्रेम पितरौ च पुत्रान्।।[3]
अर्थात् श्रेष्ठ हृदयवाले यज्ञ आदि पुण्य कर्म करने वाले अपने शारीरिक रोगों से मुक्त होकर सहज और सरल जीवन यापन करते हुए स्वर्ग आदि श्रेष्ठ लोकों में रहते हुए अपने आत्मीय पितरों एवं पुत्रों को देखें।
इन्हीं विशेषताओं में परिवारसत्यवादी, धनी, प्रसन्नचित्त और अनादि से युक्त हो। परिवार में कोई भूखा या प्यासा ना रहे। इस भावना से अथर्ववेद में इस श्लोक के द्वारा इस बात की पुष्टि की गई है
अतृष्या अक्षुध्या स्तर गृहा मास्मद् बिभीतन।[4]
परिवार में लोगोंको आपस में बांधने या संयुक्त रखने के लिए एक और महत्वपूर्ण प्रावधान अथर्ववेद में किया गया है और वह है मधुर बोली या सुखद वचन और तेजस्वी वचन। जिसकी पुष्टि इस श्लोक के द्वारा प्रस्तुत की गई है-
अश्विना सारघेण मां मधुनाङक्तं शुभस्पती।
यथा भर्गस्वतीं वाचमावदानि जनां अनु।।[5]
सामाजिक तौर पर भी देखाजाए तो यदि हम परिवार में मधुर वाणी का प्रयोग करें तो आसपास का वातावरण भी अच्छा और शुद्ध हो जाता है परिवार में भी कभी भी लड़ाई झगड़े की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। परिवारिक उन्नति के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सब मिलकर चले और परस्पर सहयोग की भावना रखें।
संराधयन्तः सधुराश्चरन्त्ः।[6]
अथर्ववेद का यह कथन है कि आस्तिकताके वातावरण में ही सभी प्राणी सुख से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। अतः ब्रह्म या परमात्मा को सुखी जीवन के लिए परिधि बना सकते हैं। सामाजिक संगठन के लिए सह भोज और सपान का अत्यधिक महत्व है इसके लिए कहा गया है कि हमारे भोजन और जलपान के स्थान एक हो। सभी एक सूत्र में, एक साथ बन कर रहे। जैसे अरे धूरी में जुड़े रहते हैं।
समाधी प्रपा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनाज्मि।[7]
सामाजिक संगठन का एक महत्वपूर्णअंग है - पारिवारिक सहयोग । इसकी और ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा गया है कि मनुष्य "मनुष्य की चारों ओर से रक्षा करें"। सामंजस्यऔर सहृदयता पारस्परिक एकता का आधारहै। परिवार में इसी प्रकार का प्रेम होना चाहिए । जैसे गाय का नवजात बछड़े से प्रेम होता है। समाज की ही तरह परिवार में भी किसी प्रकार का मतभेद या भेदभाव नहीं होना चाहिए। परस्पर भाई - बहन भाई - भाई के तूल्य व्यवहार करना चाहिए। गृह के कार्यों में सभी सदस्य मिलकर कार्य करें और उनमें सामूहिक कार्य करने की सद्बुद्धि होनी चाहिए।
यथा न: सर्व इज्जन: संगत्यां सुमना असत्।[8]
पृथिवी सूक्त में पृथ्वीके लिए कहां गया है वह भाषा भेद और धर्म भेद के होते हुए भी सभी का एक परिवार के तूल्य पोषित करती है इसी प्रकार की परिवारिक भावना से समाज उन्नत और विकसित होता है अथर्ववेद के एक मंत्र में यह भी बताया गया है कि अधिकांश संतान वाला व्यक्ति सदा दुखी रहता है इस से ज्ञात होता है कि अधिक संतान उत्पत्ति से हानि उस समय में भी गया था कम संतान की अवधारणा का महत्व था वर्तमान समय में भी छोटे परिवार के बहुत लाभ बताए गए हैं और कहा गया है कि छोटा परिवार सुखी परिवार।
इससे ज्ञात होताहै कि परिवार समाज का महत्वपूर्ण अंग था। जिसमे परिवार की अनेक विशेषताओं का को दर्शाया गया है। परिवार के साथ रहने पर व्यक्ति सुरक्षित व स्वस्थ होता तथा विभिन्न कार्यों को आसानी से कर लेता है। आने वाली पीढ़ी का समुचित विकास और चरित्र निर्माण में परिवार बहुत महत्वपूर्ण भूमिका, सहयोग आदि होता है।
[1] समाज दर्शन सैद्धांतिक एव समस्यात्मक विवेचन, हृदयनारायण मिश्रा. [2] अथर्ववेद 3.30.7 [3] अथर्ववेद 6/120/03. [4] अथर्ववेद 7/60-6. [5] अथर्ववेद 6.69.2. [6] अथर्ववेद 3.30.5 [7] अथर्ववेद 3.30-6 [8] अथर्ववेद 3.20.6