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आधुनिक शोधों में अकबर महान्

ज्योति व डॉ॰ कमल शिवकान्त हरि

सहायक प्राध्यापक

इतिहास विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका।


आधुनिक शोधों में अकबर महान्

मुगल भारत पर विश्वसनीय अध्ययन एवं इसके सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात अकबर का शासनकाल भारतीय इतिहास के सबसे नाजुक शोध-क्षेत्रों में से एक है, जैसे कि इसका गहरा संबंध पूर्व विचारों एवं नए विचारों से रहा हो एवं फलस्वरुप अकबर के काल से ही यह मान्यता रही कि ब्रिटिश राज से होते हुए वर्तमान की कई घटनाओं ने बाबरी मस्जिद विध्वंस एवं ऐसी ही घटनाओं को जन्म दिया है।1 अभी तक की सबसे बड़ी समस्या को मार्शल जी0 एस0 हॉगसन ने शब्दबद्ध किया है।

हिंदू एवं मुस्लिमों ने अपने मतभेदों के दौरान एवं सांप्रदायिकतावादी और असांप्रदायिकतावादी मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव दिया और तैमुरी काल के आधुनिक सिद्धांतों के लिए जाँचपरक सुविधा उपलब्ध कराई है। कुछ विद्वानों ने इस्लामिक सिद्धांतों पर जोर दिया है कि जबकि कुछ ने अपने समय के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों के भारतीय परिपेक्ष्य पर गौर कराया है। मुस्लिम साम्राज्य के पतन की व्याख्या का सार्वजनिक चर्चा एवं विवाद की बढ़ोतरी में विशेष योगदान रहा है। प्रारंभिक ब्रिटिश इतिहासकारों ने यह प्रमाणिक सिद्धांत दिया है कि, अकबर ने अपने साम्राज्य का निर्माण एवं विस्तार धार्मिक संगठनों की आपसी सहिष्णुता के आधार पर किया जबकि औरंगजेब ने सांप्रदायिक नीति अपनाकर अन्य धार्मिक संगठनों को अपने विरोध में कर लिया और अपने साम्राज्य का भी नाश कर दिया। मुस्लिम सांप्रदायिक इतिहासकारों ने इस सिद्धांत को अलग मोड़ देते हुए लिखा है कि औरंगजेब धर्म के प्रति अपने कर्तव्यनिष्ठा के चलते नायक बन गया जबकि अकबर खलनायक बन गया।2

मार्शल आगे कहते हैं, असांप्रदायिक इतिहासकारों ने उन नायकों के सकारात्मक योगदान को नकार दिया है जिनका मुख्य वास्ता मुस्लिम समुदाय एवं विश्वास के प्रति था बल्कि उन्होंने आर्थिक ह्ास के मुद्दे पर विशेष बल दिया है। “दोनों तरीके से इतिहासकारों ने पुर्नमूल्यांकन के तरीकों में अकबर का विविध या अलग तरीके से मूल्यांकन किया गया है।3 फर्नांड ब्रॉडेल के मुगल भारत पर किए गए सर्वेक्षण, जो कि उस समय ‘विश्व के सर्वश्रेष्ठ अर्थव्यवस्था’ का सबसे महत्वपूर्ण भाग था, इतिहासकारों के लिए एक दूसरे समस्या खड़ी कर दी, जो लोग उन्हीं के तरह विश्वसनीय खोजों की तलाश में थे अर्थात बीते कुछ दशकों में भारत, चीन आदि देशो में इस्लाम दुर्लभ रूप से प्रकट हुआ यहाँ तक कि पारंपरिक इस्लामवादियों की रुचि भी अद्वितीय तरीके से सामने आई। “और तो और, पूर्वी राष्ट्रों के मुद्दों में दिलचस्पी रखने वाले विद्वानों का झुकाव भाषा एवं संस्कृति पर ज्यादा, और समाज एवं अर्थव्यवस्था पर कम रहा है।“ “और तो और पूर्वी राष्ट्रविद, भाषाविद एवं सांस्कृतिक विशेषज्ञ होना सामाजिक एवं आर्थिक इतिहासकार होने के मुकाबले ज्यादा पसंद करते हैं।“4 इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय इस्लाम को विश्व इस्लाम के इतिहास में उसकी वास्तविक जगह नहीं मिली। आश्चर्य की बात है कि भारतीय इस्लाम के विचित्र प्रकृति की तुलना इस्लाम के अन्य रूपों से करने की कुछ कोशिशें की गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय इस्लाम के कई पहलुओं का समावेश इस्लाम के सभ्यता संस्कृति के आम बुनियादी ढाँचें में अभी तक नहीं हो पाया है। वहीं दूसरी ओर, भारतीय इतिहास के सांप्रदायिकतावादी नजरिए के कारण भारतीय इस्लाम भारतीय इतिहास का प्राकृतिक रुप से हिस्सा नहीं बन पाया है। यह अस्वीकृति की टिप्पणी इतिहासकारों के मध्य श्रम के अशुभकारी विभाजन के तौर पर की गई है। इस स्थिति का गवाह है इतिहासकारों में कार्य क्षेत्रों का बँटा होना। पिछले कुछ दशकों को छोड़ दें, तो इस्लामी इतिहास को मुसलमान इतिहासकारों ने सँवारा है, जबकि हिंदू इतिहासकारों ने पिछले कुछ दशकों में इसमें बदलाव देखने को मिला है। इस प्रक्रिया को ब्रॉडेल कुछ यूँ समझाते हैं :

“सबसे अच्छी बात तो यह है, कि पिछले बीस से तीस सालों में, जिस तरह उन्होंने अपने देश के प्रति रुख अपनाया है जो अब यूरोपीय राष्ट्रों के शासन से मुक्त हो चुका है, और जिस तरह पूर्वी इतिहासकारों की संख्या में जो इजाफा हुआ है और जिन्होंने एक नए सिरे से ऐतिहासिक घटनाओं को संजोना शुरू किया है, इससे लुशियन फेवर की इस बात का प्रमाण मिलता है जिसे उन्होंने “समस्या-आधारित इतिहास“ करार दिया था। ये इतिहासकार नए इतिहास के कारखानों के उम्दा कारीगर रहे हैं, जिनकी मेहनत का परिणाम नए किताबों एवं जर्नलों में दिखने लगा है। इस मामले में हम किसी दूरगामी क्रांति के कगार पर खड़े हैं।“5 इसलिए हम यह कह सकते हैं कि “अलीगढ़ विद्यालय“ (इरफान हबीब, मोहम्मद अतहर अली, शीरीन मूसवीं, इक्तिदार आलम खान आदि) एवं अन्य भारतीय विद्वान (जैसे सतीश चंद्र, जे0 एस0 ग्रेवाल आदि) के बेहतरीन कार्यों को जब कोई “वर्तमान मानसिकता वाले व्याख्या“ कहता है, तो यह गलत होगा। इन विद्वानों ने, नए स्रोतों का इस्तेमाल करते हुए कुछ बेहतरीन ऐतिहासिक जर्नलों को बनाया : वह भी राजनीति से प्रेरित “वर्तमान मानसिकता“ को तोड़ते हुए।6 “द कैंब्रिज इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चैप्टर-1200-1750) का प्रथम भाग इस नवीन भारतीय विद्वत्ता का प्रमाण है।7

पिछले कुछ वर्षों में किया गया अनुसंधान, जो अकबर के काल और उसके अद्वितीय व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है उसके साम्राज्य के कई अलग-अलग पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करता है।8 इसे कार्य (शोध) को काफी प्रोत्साहन अकबर के 450वें जन्मदिन के सालगिरह पर मिला, जिसे भारत में 1992 के अक्टूबर माह में दो सेमिनारों द्वारा धूमधाम से मनाया गया, इस तरह का अनुसंधान कई छोटी-छोटी समस्याओं पर ध्यान आकर्षित करता है, जिससे अकबर के इतिहास को न केवल भारतीय इतिहास में बल्कि विश्व इतिहास में भी उसके सही परिपेक्ष्य में रखा जा सकेगा। हम अपने संक्षिप्त निरीक्षण में उन्हीं विशाल अध्ययनों के कुछ नमूनों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जिससे यह बात सिद्ध होगी कि अकबर पर किए गए नवीन अनुसंधान किस प्रकार वास्तविक एवं क्रांतिकारी है।

1992 में हुई दोनों सभाओं के प्रतिभागियों ने कई अनोखी चीजों की पेशकश की, पर अकबर पर होने वाले आगे के अध्ययनों में इनका इस्तेमाल कर पाने में काफी समय लग सकता है। यहाँ तक कि प्रतिभागियों की संख्या एवं लेक्चरों की श्रेणी का बड़ा फैलाव भी आदरणीय है। अलीगढ़ में 34 लेक्चर दिए गए और नई दिल्ली में 31 प्रतिभागियों ने अकबर और उसके काल विषय पर अपना योगदान दिया। इसी समय मे सामाजिक वैज्ञानिकों ने अकबर के जन्मदिन पर दो प्रकाशन किए,9 जिसमें सात पेपर प्रकाशित हुए एवं सतीश चंद्रा, जे0 एस0 ग्रेवाल और इरफान हबीब (च्च्ण्61-72). द्वारा दिए गए भाषणों के कई पहलुओं पर संक्षिप्त चर्चा की गई है। ज्यादातर पेपर जो सामाजिक वैज्ञानिकों ने प्रकाशित किए, वे अकबर के कार्यकाल के वैसे पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, जिनसे अकबर ने अपने राज्य में संप्रदायिकता का खत्म करने का प्रयास कर एक मिलनसार समाज बनाने का सपना देखा था। अगर वे सफल हो जाते तो पूर्व-आधुनिक भारत की नींव रखने में एक महत्वपूर्ण कदम होता।

इरफान हबीब ने अपने “अकबर एण्ड टेक्नोलॉजी“ नामक पेपर में अकबर के प्रौद्योगिकी के नजरिए की सफलतापूर्वक व्याख्या की है, जो तात्कालिक यूरोपीय एवं फारसी साहित्य पर आधारित है। खासकर फारसी के आरीफ कंधारी के “तारीख-ए-अकबरी“ और अबुल फजल के “आइन-ए-अकबरी“ को ध्यान में रखा गया है। इन स्रोतों से यह सिद्ध होता है कि अकबर ने प्रौद्योगिकी विकास में, जिसमें कपड़ों की बनावट का विकास, पानी निकालने के यंत्र एवं स्वचालित हथियार शामिल है- में खासी दिलचस्पी दिखाई थी। इस क्षेत्र में अकबर की दूरदर्शिता ने रूसी जार पीटर द ग्रेट आदि को भी मान्यता दिलाई। वैसे तकनीकी विकास की सबसे बड़ी मुसीबत यह थी कि उसे गाँवों के मजदूर वर्ग को कोई फायदा नहीं हुआ। इरफान हबीब के अन्य पेपरों से हमें जो कारण मिलता है10 वह यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अत्यधिक निर्भरता सस्ते मजदूरी पर थी, जिसके कारण तकनीकी विकास की महत्ता नहीं आंकी जा सकी।

इक्तिदार आलम खान ने अपने पेपर “अकबर्स पर्सनल ट्रेट्स एण्ड वर्ल्ड आउटलुक, ए क्रिटिकल रिप्रेजल“ (च्च्ण्16-32) में अपने शोध को जारी रखते हुए उसकी सार्थकता को और मजबूत किया है।11 उनकी एक बेहतरीन कोशिश रही है अकबर के धार्मिक विकास का आकलन करना ऐतिहासिक एवं मानस शास्त्र के आधार पर। लेखक ने कई जगहों पर अकबर को लेकर साधारण धारणा को चुनौती देते हुए उनके भावभंगी, जैसे कि शियाओं को लेकर सूफी अभियान को लेकर, या मुस्लिम कट्टरपंथ को चुनौती देते हुए लिखा है कि उनकी सोच स्थाई नहीं थी, जैसा कि पहले सोचा गया था। इक्तिदार आलम खान की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इस बात में है कि उन्होंने अकबर के व्यक्तितव को एक बदलते क्रिया के तौर पर देखा है, जहाँ उनकी मानसिकता में लगातार बदलाव होते रहता है। इस तरह से सोचने पर हमें यह महसूस होता है कि अपने राज के अंतिम दौर में अकबर ने कट्टरपंथ इस्लाम के लिए कड़ा रवैया अख्तियार किया था। इस बात पर इक्तिदार आलम खान ने बिल्कुल सही ढंग से अतहर अली के पहले के वाक्यों को सुधारा है।12

सामाजिक वैज्ञानिकों के बांकी पेपरों में, अकबर की काफी गहरी चाहत, जो वसुधैव कुटुंबकम को लेकर भी एवं जो तात्कालिक भारतीय सोच से मिलती है,13 इस बात पर प्रकाश डालती है कि अकबर ने एक समृष्टियुक्त सभ्यता बनाने की कोशिश की थी।14 वैसे ही कुछ पेपर तत्कालिक राजस्थानी एवं जैन साहित्य पर प्रकाश डालती है,15 जिससे अकबर को एक बेहतर एवं स्पष्ट तस्वीर पेश की जा सके। उसके बाद भी ये योगदान विस्तृत रूप से सारे तात्कालिक तत्थों एवं सबूतो पर प्रकाश नहीं डालते, अलग-अलग धार्मिक एवं सांस्कृतिक नजरिए से अकबर की क्रांतियों एवं व्यक्तित्व को नहीं देख पाते हैं। फिर भी इस दिशा में किया पहला कदम है।

मोहम्मद अतहर अली के पेपर अकबर के युग में संस्कृत और फारसी सभ्यता के बीच परस्पर संबंध के कार्यों की समस्या की दुबारा निरीक्षण करता है। विंसेंट स्मिथ ने इस प्रक्रिया की महत्ता को ना समझते हुए एक नकारात्मक रवैया अख्तियार करते हुए कहा है :

“आजकल शायद कोई भी बदाँयूनी एवं दूसरे लोग द्वारा, अकबर के कहने पर, संस्कृत के अनुवादों को नहीं पढ़ता है, जिसे करने में अत्यंत मेहनत लगी थी। उनकी साहित्यिक काबिलियत पर एक सही आकलन प्राप्त कर पाना लगभग असंभव सा है, और उसके बावजूद भी लगता नहीं है कि उससे कोई फायदा होगा।“16

दोनों सभ्यताओं के समागम का प्रश्न विश्व के इतिहासकारों के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहा है, जिससे बहुत गिने चुने इतिहासकारों ने ही समझा है और दोनों सभ्यताओं के रहस्यमयी “चुनाव पर आधारित लगाव“ की व्याख्या कर पाने में सक्षम रहें जिसे ॅींसअमत ॅंदकेबींजि भी कहा गया है, अकबर के युग पर की गई अधिकतर शोध क्रियाओं की मुसीबत यह है कि वे खुद को अबुल फजल और बदायूँनी के बयानों से संतुष्ट हो जाते हैं, वह भी अपने वक्तव्यों की मूल स्रोतों से तुलना किए बगैर। इस दिशा में पहला कदम मुस्तफा खलिकदाद के प्रकाशन ‘अब्बासी पंखकख्याना’ के द्वारा की गई, जिसमें दो विद्वानों ने प्रस्तावना लिखी है। यह दो संपादक है ताराचंद और एस0 जे0 एच0 अबीदी, जिन्होंने असली संस्कृत स्रोतों (पूर्णभद्रा पंखकयनाका) और उनके साहित्यिक अनुवादों में एक वफादार समानता दिखाई है। दोनों संस्कृति में परस्पर संबंध की गहरी चर्चा करते हुए एक बात का विश्लेषण करते वक्त यह पता चलता है, कि दोनों फारसी और अरबी विद्वानों की कई लहरें आई जिन्होंने भारतीय संस्कृति की अध्ययन करने की बहुत कोशिश की, परंतु भारतीय विद्वानों द्वारा समान प्रयास नहीं किए गए।

कुछ चुने गए सामाजिक वैज्ञानिकों के पेपरों में कठिन विवरण किया गया है “पाकिस्तानी पुस्तकों में अकबर“ जिसे मुबारक अली ने लिखा है, के विषय में जिन्होंने पाकिस्तान में इतिहास शिक्षा के बिगड़ते स्तर की चिंताजनक स्थिति की व्याख्या की है। वे चर्चा करते हैं उस वक्त की, जब साठ के दशक में अमेरिकी दबाव में इतिहास के विषय को पूर्णतः समाजशास्त्र से बदल दिया गया (जो इतिहास, राजनीतिक, अर्थशास्त्र एवं भूगोल का मिश्रण था) और बाद में इस मसाले को राज्य सिद्धांत प्रचार मंडली का हिस्सा बना दिया गया। इस विषय के अध्ययन हेतु “केवल वैसे इतिहास के पृष्ठों को शामिल किया गया जो दो-राज्यों के सिद्धांत को बल देता है एवं एक पूर्ण भारत के मिलनसार स्वभाव से किनारा कर लेता है। चूँकि अकबर इस स्थिति में प्रभावशाली प्रतीत नहीं होता, उन्हें बहुत बारीकी से नजरअंदाज कर दिया जाता है और प्रथम कक्षा से मैट्रिक की पढ़ाई तक चर्चा नहीं की जाती है।“ ये मानसिकता एक तर्कधारित नतीजा है संप्रदायिकतावाद का, जो भारत से नफरत करने सिखाता है। यह बिल्कुल विपरीत है अकबर ने जिस का सपना देखा था।

इस परिपेक्ष में इस बात की चर्चा करना सही होगा कि भारतीय पुस्तकों में अकबर और उनके राज को कितनी तवज्जो मिलती है। मेरे नजरिए में, इस बात का गहन अध्ययन करना काफी कठिन हो सकता है कि यूरोपीय और अमेरिकी पुस्तक भारतीय इतिहास को कितनी तवज्जो देते हैं, और उसमें भी इस्लामिक काल को, और कैसे पिछले कुछ दशकों में इसके प्रति नजरिया बदला है। यूरोप में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में इससे संबंधित शिक्षा व्यवस्था की बनावट उन्नीसवीं सदी के अंत की ओर बन सका। उन दिनों में यूरोप के खुद को (हीगेल और मार्क्स के दर्शनशास्त्र के इतिहास के मायने में) प्रखर करने में व्यस्त कर रखता है। ये बात महत्वपूर्ण है कि यूरोपीय लोग तात्कालिक इतिहास को, जो यूरोप के बाहर के लोगों से संबंधित हो, अपनी सफलता से तुलना करते हैं और उसे ही इतिहास की मुख्य धारा मानते हैं। इस तरह कई समस्याओं और लोगों के पूरे इतिहास को ही अनदेखा किया गया है। जैसे कि हंगरी के इतिहास का ध्यान उन्हें उन्नीसवीं सदी के अंत तक आया, और पूर्वी इतिहास की परवाह तब तक नहीं कि जब तक कि सीधा अनुवाद इस क्षेत्र से नहीं हुआ। इस इतिहास में, यूनानी एवं रोमन लोगों का जिक्र है, प्राचीन मिस्त्र और इराकी एवं फारसी इतिहास का भी जिक्र है, जबकि भारत का जिक्र सिर्फ तब आता है जब सिकंदर दुनिया जीतने भारत पहुँचा था। विद्यार्थियों को इस क्षेत्र से कोई मतलब तब तक नहीं रहा, जब तक यूरोपिय व्यवसायी इस क्षेत्रों में पूँजीवाद के शुरूआती काल में नहीं पहुँचे। इस मानसिकता के अनुसार, पूर्व के लोग इतिहास के मूल दर्शक थे, जिस पर काफी पहले से, यानी प्राचीन यूनानी से, यूरोपीय लोगों का बोलबाला रहा है। एक तर्क आधारित सैद्धांतिक व्याख्या की जा सकती है “एशियाई निर्माण के तरीके“ के आधार पर, जो इतिहास पर पूर्वी लोगों के प्रभाव छोड़ने के सक्षमता पर सवाल खड़ा करता है। लेकिन इस स्थिति में साठ के दशक से बदलाव शुरू हुआ है। हंगरी के विश्वविद्यालयों में भी भारत को अब सही स्थान प्राप्त हो रहा है।

मेरे छोटे से शिक्षण अनुभव के आधार पर मैं संयुक्त राज्य में उपयुक्त पुस्तकों पर टिप्पणी करना चाहता हूँ, अंतिम अस्सी या शुरुआती नब्बे के दशक में। अमेरिका, यूरोप और एशिया से समान दूरी पर स्थित है, जिस कारण से इतिहास के अध्ययन में कोई भेदभाव नहीं है। अतः हमें कुछ पुस्तक मिल जाते हैं जिनमें यूरोपीय एवं एशियाई इतिहास को जोड़कर पढ़ाया गया है, इस बात को ई0 मैकनॉल बर्न्स ने अपनी प्रख्यात पुस्तक में कुछ इस तरह दर्शाया है :

“वो जमाना कब का गया जब आधुनिक मनुष्य दुनिया को संयुक्त राज्य और यूरोप तक सीमित मानता था। पश्चिमी संस्कृति को मूलतः यूरोपीय मूल का माना जाता है। लेकिन यह कभी भी इतना निषेधक नहीं रहा है। इसकी असली नींव दक्षिण पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका में रखी गई है। इनको काफी मदद भारत से, और धीरे-धीरे चीन से भी मिली है। भारत और मध्य पूर्व से पश्चिम को शून्य का ज्ञान प्राप्त हुआ, कंपास का, बारूद का, रेशम का, कपास एवं सूत्र का और कई धार्मिक एवं दर्शनशास्त्र के सिद्धांत का भी.........“17

एक दूसरा, थोड़ी ज्यादा आधुनिक पुस्तक, एक कदम आगे बढ़कर पूर्वी इतिहास और यूरोपीय सफलताओं को बराबर का श्रेय दिया है। कुछ इस तरह लेखकों ने अपनी बात की पुष्टि की है :

“हमारी दूसरी संस्कृतियों और लोगों को समझ पाने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि हम उनके इतिहास एवं मूल्यों को समझ पाते हैं या नहीं। इस समय समझ के बिना कोई जिम्मेदार नागरिकता, कोई जागरुक निर्णय या कोई प्रभावशाली संवाद कर शांति और इज्जत प्राप्त करना संभव नहीं है। ये लेखनी इतिहास की हमारी समझ में एक नया रास्ता बनाने का कार्य करता है। ज्यादातर पुस्तक जो यूरोपीय इतिहास की व्याख्या करते हैं, उनमें केवल गिने चुने गैर-यूरोपीय पाठ ही डाले जाते हैं। विश्व की समस्याएँ शुरू से ही विश्व इतिहास का भाग रही है........... एक वास्तविक प्रयास है जो ऐतिहासिक घटनाओं सभ्यताओं, समाजों और श्रद्धाओं को वैश्विक परिपेक्ष में व्याख्या करता है.........“18

इस तरह से देखे जाने पर अकबर और उनकी सफलताओं को उनकी जगह मिलती दिखती है। उन्हें एक महान शासक के तौर पर दिखाया गया है, जो अपने “प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ते थे“ और जिन्होंने कोशिश की :

“भारत के कई सामाजिक वर्गों के प्राचीन संस्कृति और धार्मिक धरोहर को मिलाने की.....जिन्होंने खुद को एक भारतीय शासक के तौर पर देखा, ना कि एक विदेशी आक्रमणकारी की तरह, और उस शुरू से ही इस बात को समझा कि उनके शासनकाल की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वो भारत के सभी सामाजिक वर्गों को साथ लेकर चल पाते हैं या नहीं....“19

इन कुछ उदाहरणों से इस बात की पुष्टि होती है कि शायद, संयुक्त राज्य में यह शायद यूरोप में ही, हमारे परस्पर इतिहास में रुचि बढ़ती हुई दिख रही है।

मैं अब ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा उन पेपरों पर जिन्हें सेमिनारों में प्रस्तुत तो किया गया, पर प्रकाशित नहीं किया जा सका।20

शीरीन मूसवी ने अबुल फजल पर लिखे पेपर पर अबुल फजल के जीवन पर किए गए अध्ययन पर गहन अध्ययन की कमी को दर्शाया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि सारी कोशिशें जो विद्वानों ने उनके चरित्र को समझने हेतु की है, वे निराशाजनक रही है, उनकी जटिल दुनिया, उनका नजरिया एवं उनकी लेखनी का तरीका जो इतिहास की अद्वितीय चित्र हमारे समक्ष रखता है। अपने पेपर में शीरीन मूसवी ने अपने शुरुआती शोध को आगे बढ़ाया है, जो अबुल फजल के ‘अकबरनामा‘ 21 पर आधारित है और यह दिखाता है कि अकबर के युग के मूलभूत एवं खास चरित्र को, और कैसे इस युग के द्वारा समझा जाना आवश्यक है। वो भारत के इस्लामी इतिहास के खासियत पर जोर देते हुए कहती है, कि अबुल फजल ने किन परिस्थितियों में कितने मेहनत एवं निःस्वार्थ भाव से कार्य किया है (उसी व्याख्या को अबुल फजल ने पाँच पर दोहराया, ताकि विश्वसनीयता बहाल हो सके)। एक विस्तृत और गहन अध्ययन जो फजल के जीवन और व्यक्तित्व पर केंद्रित हो, कि पहली कड़ी है कठिन तथ्यों को जमा करना, जो एक विस्तृत जाँच प्रक्रिया पर आधारित हो, जैसे मूसवी ने किया। तत्पश्चात् उस जानकारी को क्रमबद्ध करना और तात्कालिक स्रोतों से मिली जानकारी से उसकी तुलना करना, चाहे वे नर्म हो या सख्त, और आखिर में संभवतः आधुनिक एवं आकर्षक सिद्धांतों को अनदेखा करना। अबुल फजल को, अकबर की ही तरह, उनकी युग और उम्र के आधार पर ही न्याय करना सही होगा, ना की बीसवीं सदी के आधार पर।

जे0 एफ0 रिचर्ड्स ने अपने पेपर में22 अकबर पर अनुसंधान के एक महत्वपूर्ण समस्या को हल करने का प्रयास किया है जो अकबर के राज्य निर्माण पर आधारित है। कुछ ही समय पूर्व इस आधारभूत मुद्दे की चर्चा दो अन्य विद्वानों द्वारा की गई है, जिन्होंने मुगल को वेबेरियन के पितृ प्रधान नियम में फिट करने की कोशिश की है। जब तक एस0 पी0 ब्लैक और पी0 हार्डी ने मुगल राज्य के मुख्य पैतृक गुण पर विशेष ध्यान दिया, जे0 एफ0 रिचार्ड्स इस बात पर बल देते हैं कि अकबर द्वारा निर्मित साम्राज्य पितृप्रधान और नौकरशाही दोनों ही प्रकार का था। यह विचित्र और काफी हद तक कुशल राज्य नौकरशाही और साम्राज्य के हर क्षेत्र पर काबू करने के लिए और सफल पूँजीवादी साम्राज्य के मूल उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त केंद्रीयकृत था।

उदाहरण के लिए, राजस्व की बढ़ोत्तरी और कार्य के पुनः बँटवारे वाली समिति का चलन। लेकिन यह मनसबदारी प्रथा के अंतर्गत कुछ हद तक पितृवादी था क्योंकि स्थानीय सेनाओं को कुछ स्वतंत्रता दी गई थी। राज्य के नागरिकों और सैन्य तत्वों के बीच हमेशा बदलने रहने वाला रिश्ता अकबर जैसे साम्राज्य के सबसे गुप्त गुणों में से एक है जो आंतरिक और बाह्य दोनों (जे0 एफ0 रिचार्ड इसे सामाजीकरण कहते हैं) प्रवृत्ति का था। अकबर के राज्य के ऐतिहासिक जड़ों का पुनर्निर्माण एवं इसे विस्तृत और इस्लामिक एवं भारतीय, दोनों परिपेक्ष्य में रखा जाना एक चुनौती है। इस जटिल समस्या के व्यवहार के समय कोई यह नहीं भूल सकता कि पारंपरिक इस्लाम में भी, नगर सरकार के नियमित शक्ति ह्ास। या सैन्य नियम को देखा जा सकता है, अकबर के राज्य ने, हालाँकि अद्वितीय अनुभव प्रस्तुत किए जिसकी जड़े, तत्त्व और बदलते अनुपातों का परीक्षण किया जाना चाहिए।

सावधानीपूर्वक किया गया परीक्षण ज्यादा जरूरी एवं महत्वपूर्ण है क्योंकि, द्वितीयक साहित्य और पुस्तिकाओं में मुगल राज्य पर कुछ घिसी-पिटी बातें हैं जिन्हें बिना विद्वत्तापूर्ण छानबीन किए दोहराया गया है। इन बातों में से एक है मुगल राज्य के मध्य एशियाई मूल के होने पर जोर दिया जाना। इस समस्या को रोकने के लिए कुछ कोशिशें की गई हैं क्योंकि इसके लिए, मध्यकालीन भारतीय इतिहास के साथ-साथ मध्य एशियाई अध्ययन या परंपरिक इस्लाम दोनों के ही विशेषज्ञ की जरूरी है। यह सराहनीय है कि अलीगढ़ सेमिनार के मौके पर, एम0 हैदर ने इस समस्या पर ध्यान दिया। मुगल और मध्य एशियाई संस्थाओं के बीच सामंजस्य बैठाते समय, वे उन संस्थाओं के बीच भेद करती है जिनमें वास्तविक बदलाव (सुयुरधल इत्यादि) आया और जिनमें कुछ हद तक सुधार आया (‘गाजी-ए-लश्कर’ और ‘साहिब-ए-तौजिह’, सेना का पुर्नावलोकन एवं इकट्ठा होना)। वे उन गुणों को भी वर्णित करती है जिनका मुगल अभ्यास पर असर हो सकता था, उदाहरण के लिए वित्तीय व्यवस्था और राजसत्ता की संकल्पना। लेखिका द्वारा उठाए गए मुद्दों की आगे जांच की जरूरत है। एम0 हैदर के पेपर की सबसे बड़ी विशेषता है कि उम्मीद है कि यह विस्तारित अध्ययन को प्रेरणा देगा यह स्वंय लेखिका का कथन है।

बीते दशकों में अकबर पर शोध ने विशेषकर आर्थिक इतिहास के क्षेत्र में प्रगति की है, परंतु कुछ समस्याएँ अभी भी सुलझाई जानी बाँकी है।23 के0 एस0 मैश्यू जो मैश्यू कि प्रतिभागियों में से एक है, ने दिखाया कि एक समस्या को नए तरीके से प्रकाश में लाया जा सकता है जो कि अब तक मुख्य तौर पर धार्मिक मुद्दा कहा जाता है। अपने पेपर में, टी0 आर0 डीसूजा अकबर के पुर्त्तगालियों एवं जेस्युइटों के प्रति रवैये को आर्थिक एवं सैन्य नजरिए से देखते हैं। कुछ लेखकों से प्रभावित होकर एम0 एन0 पीयरसन और शीरीन मूसवीं के सांख्यकीय आंकड़ों24 का प्रयोग करते हुए लेखक “हज बाजार“ का पुनर्निरीक्षण करते हैं जो भारत के समुद्र व्यापार पर आर्थिक महत्त्व होने के साथ-साथ अकबर द्वारा तय किए गए तटीय गुजरात के उच्च महत्त्व का है। वह तीन मुद्दों को विश्वासपूर्वक साबित करते हैं। पहला यह कि अकबर के लिए हज काफी आर्थिक महत्व का था। इसलिए इसके धार्मिक उद्देश्य के अलावा यह आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। दूसरा, यह कि पुर्त्तगालियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध होना महत्वपूर्ण राजनयिक निर्णय था जिस कारण अकबर ने पुर्त्तगालियों की उपस्थिति का फायदा उठाकर तुर्कों को सिर उठाने से रोका और शायद हिंद महासागर25 में खतरनाक भूमिका निभाने से भी रोका और तीसरा यह कि जेस्युटों से संपर्क अकबर के लिए महत्वपूर्ण था लेकिन मात्र धर्म के लिए नहीं। दो सेमिनारों में प्रस्तुत किए गए कागजों के संक्षिप्त परीक्षण के बाद, हम कुछ मुद्दों और कार्यो की ओर मुड़ते हैं जो अकबर से जुड़े हैं तथा जिन्हें बीते कुछ वर्षों में लिखा गया है। पूर्व ब्रिटिश भारत में “पूँजीपतियों की शक्ति में बढ़ोत्तरी“ के समाप्त होने का ब्यौरा दिए बिना मैं एक दिलचस्प पुस्तकें26 की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा, जिसकी सत्रह प्रतियाँ दक्षिण एशिया और विश्व पूँजीवाद पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में प्रकाशित हुई जो कि तुफ्व्स विश्वविद्यालय में 11-14 दिसंबर 1986 में मनाया गया। यह हमारे लिए विशेष रुप से रुचिकर है क्योंकि यह विश्व व्यवस्था विशेषकर आई0 एम0 वेलरस्टेन और बड़ी संख्या में इतिहासकार जो भारतीय इतिहास की व्याख्या कर रहे हैं के बीच मनमुटाव को साफ जाहिर करता है। ज्ञातव्य है कि वेलरस्टेन के पास सामंतवाद से लेकर पूँजीवाद तक परिवर्त्तन को लेकर कम या ज्यादा मजबूत पक्ष है। उनके सिद्धांत ये सिद्ध करते हैं कि विश्व में एक वैश्विक अर्थव्यवस्था (पूँजीवाद) होना चाहिए, जो तीन आगे चलकर तीन खंडों में परिवर्त्तित होते हैं :

पण् शुरूआती दौर में सामंतवादी यूरोप का पूँजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्त्तन

पपण् यह परिवर्त्तन बाद में बाहरी गैर पूँजीवादी व्यवस्थाओं से वर्त्तमान और आवश्यक पूँजीवादी विश्व-अर्थव्यवस्था द्वारा अनुकरण किया गया और

पपपण् परिवर्त्तन की तीसरी कड़ी है, गरीब वर्गों के मेहनत में और पूँजीवाद विश्व अर्थव्यवस्था में भूमि का व्यापारीकरण में विस्तार। इस सिद्धांत के अनुसार, उनके मैग्नम ओपस के प्रथम संस्करण में मुगल भारत और हिंद महासागर सिर्फ अधिकार27 करने योग्य भूमि के अंतर्गत आते हैं और भारत में पूँजीवाद में परिवर्त्तन इंग्लैंड द्वारा अपने विश्व पूँजीवाद में सम्मिलन द्वारा ब्.1750 और ब्.1820 के बीच हुआ है, जब भारत में कपड़ों के व्यापार के नाश के साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता खत्म हो गई28 इस ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में आंतरिक मुद्दों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। जो विद्वान, वास्तविक ऐतिहासिक क्रमों पर ध्यान देते हैं जो ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से आगे बढ़ती है, उन्हें भारत के पूँजीवादी विकास का अधिक विस्तृत रूप दिखेगा।

उदाहरण के लिए सी0 ए0 बेली ने, अपने पेपर29 में ऐतिहासिक पहुँच को खारिज किया है जो भारत को एक पत्थर के दुर्गम स्मारक की संज्ञा देता है और राजनीतिक अर्थव्यवस्था और सामाजिक संस्थाओं में अंतर बताता है बल्कि पुरोहितों द्वारा शासित राजनीतिक अर्थव्यवस्था की रूपरेखा भी बनाने की कोशिश करता है।

उसकी रूपरेखा जो कि कारण सहित एवं विश्वासी दोनों ही थी, राजनीतिक एवं आर्थिक दोनों ही कारणों को खुद में शामिल करती है और यह दिखाती है कि मुगल शासक की बनावट हलांकि उच्च वर्गीय समाज वाली थी, परंतु इसे एकमात्र राजनीतिक या आर्थिक कारणों में नहीं गिना जा सकता था। इसकी कई उपव्यवस्थाएँ थी और यह वैश्विक शासन और वैश्विक अर्थव्यवस्था दोनों के लिए समान रूप से खुला था। इस रूपरेखा का संबंध पूर्व-ब्रिटिश भारत से भी है।

डी0 लुडेन के पेपर को भी एक इतिहासकार के विश्व-व्यवस्था सर्वेक्षण के सैद्धांतिक चुनौती का सुंदर जवाब करारा जा सकता है। मुगल भारत के मुख्य गुणों में से एक को डी0 लुडेन “कर देने वाले व्यापारिक व्यवस्था“30 बुलाते हैं, जिनसे पूँजीवाद शहरों एवं सांकेतिक ग्रामों के मध्य गहरा संबंध स्थापित किया। साम्राज्यवादी भागों के कारण यह गुण आवश्यक था लेकिन परिणामस्वरुप इसने पूँजीवादी गुणों को बढ़ावा दिया। “राज्य करो पर आश्रित थे, जो कि व्यापार पर आश्रित होता था, जबकि व्यापार पर खर्च करने वाले लोग तरल पूँजी पर निर्भर होते थे जो करो के आदान-प्रदान के बल पर सुरक्षित था और फलता-फूलता था।“31 “कर के लेन-देन पर आधारित इस व्यापार“ मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों में एक मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास किया, लेकिन इसने साथ की कृषि अर्थव्यवस्था पर बड़ा खींचतान वाला प्रभाव डाला जो धीरे-धीरे आगे चलकर “यूरोपीय व्यापारिक पूँजीवाद के वैश्विक अभियान“ में शामिल हो गया। इस तरीके से दोनों और की निर्भरता विकसित हुई। कंपनी का निर्यात और खर्च अंतर्देशीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कर व्यापारिक व्यवस्था पर निर्भर करता था। जिससे समुद्रपार के अत्याचार द्वारा संचालित राजनीतिक अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी की।“32 ग्रामों की बहुसंख्या के लिए करद व्यापार व्यवस्था का मतलब हबीब की रचनाओं (कार्यो) का समझ आता है, अर्थात केवल उनके बचत की उपज पर व्यापार होता था किसानों की एकतंत्रीय शासन अछूती रही, किंतु किसी मौद्रिक अर्थव्यवस्था के विकास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और एक ओर जैविक कृषि का विकास हुआ और दूसरी ओर पूँजीवादी शर्तो का जो पूँजीवादी विश्व-अर्थव्यवस्था में आसानी से जगह बना सकती थी। यह दोनों ओर की निर्भरता, हालांकि वैलरस्टेन के एकवादी सिद्धांत से काफी अलग है।

हमारे युग के महानतम इतिहासकारों में एक ब्रॉडेल ने जब उनके मैग्नम ओपस में भारत जो सभ्यता की प्रगति क्रम और पूँजीवाद में 15वीं और 18वीं सदी में33 ऐतिहासिक जगह हासिल की है उसको दिखाना चाहा, तो उन्होंने एकवादी निर्णय को स्वीकार नहीं किया और अपने आधिकारिक सर्वेक्षण में पोस्ट हॉक अरगो प्रोप्टर हॉक के कुछ संकटपूर्ण अवधारणा को शायद दरकिनार किया गया है। यहाँ तक कि प्रतीत होने वाले पूँजीवाद के बिना समस्या वाली धरणा को ब्रॉडेल द्वारा इतिहासकारों के आधिक्य से अलग कल्पना किया गया है। उन्होंने अपनी रचना के शुरूआती पन्नों34 में पूँजीवाद के वृहत अवधारणा में अंतर दिखलाया है और यह तीन स्तर पर है। जो भी हो जो सबसे महत्वपूर्ण है और जो सबसे वृहत और विषम भाग है उसे वे “भौतिक जिंदगी“, “भौतिक सभ्यता“ या अतिरिक्त अर्थव्यवस्था “आर्थिक गतिविधियों का अनौपचारिक आधा, विश्व की स्वयं पर्याप्तता और वस्तुओं एवं सेवाओं का एक अलग क्षेत्र में विनिमय कहकर बुलाते हैं।“35

अभी कुछ समय पहले तक, “विश्व की 80 से 90 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या“ का संबंध इससे था।36 यह भौतिक सभ्यता आर्थिक चक्र उससे मिलती जुलती थी पर उस जैसी नहीं थी। इसकी जड़ें पूँजीवादी युग से पहले पाई जा सकती है और इसे स्ट्रिक्टों सेन्सु के लिए महान संग्रह कहा जा सकता है, लेकिन पूँजीवाद के फैलाव में यह पहले से पूर्णतः बदलाव या निगमित से दूर है। इसका दूसरा स्तर बाजार अर्थव्यवस्था है, जो अपने शुद्ध रूप से औद्योगिक क्रांति का परिणाम है और इसके अबाधित कार्य को राजनीतिक अर्थव्यवस्था की उर्जा के सैद्धांतिक धारणा के रूप में कहा जा सकता है।37 तीसरा भाग “पूँजीवाद का समर्थन क्षेत्र“ उन “सामाजिक पुरोहितों का शासन“38 को घेरता है जो राजनीतिक और सेना द्वारा अपने विभिन्न हितो को लागू करने की कोशिश करता है अर्थात (राज्य, पार्टी, संसद, सेना आदि)। 18वीं सदी तक प्रथम विश्व युद्ध तक यह कहा जा सकता है “राजनीतिक पूँजीवाद“ यूरोपीय (और अमेरिकी पूँजीवाद की सफलता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण था। ऐसे विश्वासी और खुले दिमाग के इतिहासकार विभिन्न सभ्यताओं को विभिन्न तरीकों से देखता है और 19वीं सदी तक यह खोज लिया गया था कि- यूरोपियनों के मध्य उत्पादन एवं व्यापार की कई शाखाओं की गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं है और उदाहरण के लिए दुरस्थ पूर्वी अर्थव्यवस्था कहा जा सकता है। ऐसा करने में, शायद कोई ऐतिहासिक प्रक्रिया के शुरूआती काल से इसकी एक प्रथा के परिणाम की सुविधा जनक स्थिति की व्याख्या में हुई गलती को नजरअंदाज कर सकता है।

सैद्धांतिक तौर पर ये सच हो सकता है कि मानव की शरीर रचना वानरों का संकेत है पर यदि हमें वानरों की चर्चा करनी हो तो यह बड़ी भूल होगी कि हम उससे मानवों की तरह से लें। और तो और, लोग को ये नहीं भूलना चाहिए कि 18वीं सदी तक यूरोपीय पूँजीवाद भी अपने शुरुआती काल में था। यही कारण है कि ब्रॉडेल विश्व-अर्थव्यवस्था (=पूंजीवाद) और वैश्विक अर्थव्यवस्था में कर मत भेद करते हैं, इस काल में स्वाभाविक रूप से विश्व अर्थव्यवस्थाओं39 पर गौर करते हैं। जबकि विश्व-अर्थव्यवस्था में, “(ब्रह्मांड का बाजार)“40 भाव-भंगिमा के काफी अंतराल के बाद 19वीं सदी41 से ही सिर्फ पूर्ण विकसित हो चुका था। “एक वैश्विक अर्थव्यवस्था....... का संबंध केवल विश्व की झलक से है, एक आर्थिक रुप से स्वतंत्र ग्रह जो ज्यादातर अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है, एक शाखा जिसको इसका आंतरिक जुड़ाव और विनिमय केंद्र एक निश्चित रचनात्मक दृढ़ता42 देता है।

ब्रॉडेल के अनुसार, आधुनिक युग की इन अतिआवश्यक चार सदियों में यूरोपीय अर्थव्यवस्था के निकट और दूसरी तीन विश्व अर्थव्यवस्था थी : रूस की वैश्विक अर्थव्यवस्था,43 तुर्की साम्राज्य44 और सुदूर पूर्व, जिसका मुख्य भाग भारत था “सभी विश्व अर्थव्यवस्थाओं में सर्वोच्च“ था।45 यह प्रस्ताव मुगल-काल में भारतीय अर्थव्यवस्था के परीक्षण के लिए और इसके स्तर और पूँजीवादी सामर्थ्य की दूसरों से, यूरोपीय विश्व अर्थव्यवस्थाओं से भी तुलना के लिए दृढ़ सैद्धांतिक पृष्ठभूमि देता है। इस तुलना में भारत 18वीं सदी तक ज्यादा बुरा नहीं साबित होता है।

अपनी सीमाओं के अंदर, भारत बिल्कुल सुविधापूर्ण था एक मजबूत प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के साथ यहाँ की खेती पारंपरिक थी परंतु काफी उपजाऊ और पैदावार देने वाली थी, यहाँ का उद्योग पुरानी व्यवस्था वाला था पर विकसित एवं कुशल था। (1820 तक, भारत का स्टील वास्तव में इंग्लैंड में बने किसी भी चीज से बेहतर प्रकार का था और सिर्फ स्वीडिश स्टील से कमतर था); पूरे देश में एक बेहतरीन तरीके से स्थापित अर्थव्यवस्था व्याप्त और कई कुशल व्यापारिक प्रतिपक्ष भी थे। अंतरिम तौर पर कोई यह उम्मीद कर सकता है कि भारत की व्यापारिक एवं औद्योगिक ताकत एक प्रबल निर्यात व्यापार पर आधारित थी, और यह उसके अपने तटों से होने वाले बेहतर व्यापार का एक आर्थिक हिस्सा था।“46

शुरुआती आधुनिक भारतीय अर्थव्यवस्था की विकसित शाखाओं में कृषि में निर्यात के उद्देश्य कृषि पौधों (इंडिगो, कपास, गन्ना, अफीम, तंबाकू और गोल मिर्च) के विकास में बढ़ोत्तरी की गई होगी। इनमें मुख्यतः “मुश्किल व्यापारिक तकनीक की जरूरत पड़ती थी।“ इसलिए ब्रॉडेल ने इन्हें “भारत में फैला एक जोखिम भरा पूँजीवाद, जो किसानों, व्यापारियों, यूरोपीय कंपनियों के प्रतिनिधि और मुगल सरकार के बड़े कर द्वारा नियमित मदद जिसने राज्य के एकाधिकार की कोशिश अधिकार मान्यता प्राप्त करने द्वारा की“47 कहते हैं। उद्योग में, स्टील उत्पादन के साथ, जहाज निर्माण48 मुख्य था और वस्त्र उद्योग जिसने 19वीं सदी के आरंभ को धनी कर दिया। इन आर्थिक उपलब्धियों के आधार पर ये आश्चर्य की बात है नहीं है कि जहाँ तक मुनाफे की बात है एवं प्रति व्यक्ति आय का संबंध है, भारत और यूरोप में औद्योगिक क्रांति तक कोई विशेष अंतर नहीं था। 1800 में, पश्चिमी यूरोप का आंकड़ा यू0 एस0 के 203 डॉलर का था। (इंग्लैंड के ये ऑंकड़े 1700 में 150 से 190 डॉलर के बीच था) जबकि भारत में 160 से 210 डॉलर के बीच था (पर 1900 में ये 140 से 180 डॉलर के बीच था)।49

इन आंकड़ों के आधार पर ब्रॉडेल ये निष्कर्ष निकालते हैं कि, भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य से पहले, यूरोपियन उपनिवेश एक परजीवी की तरह (“किसी विदेश भूमि पर परजीवी की तरह चिपके रहना“) पूर्ण व्यापारिक स्वभाव से चिपका हुआ था। यूरोपियन उत्पादन की उपलब्धता और बाजार की सुविधा की खोज में व्यापारिक रास्तों से, उनके आने से पहले के अस्तित्व को साधन की खोज करते हुए निकले और इसलिए उन्होंने खुद को बुनियादी ढाँचे के निर्माण, और सामानों को बंदरगाह तक ले जाने के यातायात का जिम्मा स्थानीय समुदाय के लिए छोड़ते हुए उत्पादन के प्रबंधन एवं वित्त व्यवस्था करते हुए और मौलिक विनिमय को संभालते हुए मुश्किल से बचाए रख।50

इसलिए ब्रॉडेल की व्याख्या में, भारत की पूँजीवादी समावेश का पूँजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अर्थ वास्तव में यह था भारत में अंततः 19वीं सदी में औद्योगिकीकरण खत्म हो चुका था और इसकी भूमिका सिर्फ कच्चे मालों के बड़े उत्पादक की रह गई थी,51 और इसके बाजारों पर भी इंग्लैंड ने अधिकार कर लिया था। यह “इंटर आलिया है“ अर्थात वैलरस्टेन के सिद्धांत पर ब्रॉडेल का प्रत्युत्तर है। इसका सबसे महत्वपूर्ण संदेश है कि उन्नीसवीं सदी के आधार पर किसी को मुगल भारत पर कोई राय नहीं देना चाहिए, क्योंकि इसकी उत्पत्ति और प्रवृत्ति का निश्चय इसके शुरुआत के आधार पर नहीं किया जा सकता।

आखरी में हम कुछ हाल के अत्यंत जरुरी मौलिक ग्रंथों की चर्चा करेंगे जो अकबर की अधिकारिक तौर पर मुगल साम्राज्य के निर्माण के ढाँचे के आधार पर उल्लेख करते हैं। बाद की व्याख्या का महत्वपूर्ण भाग, अकबर के लिए प्रत्यक्ष कारणों से पवित्र है। एक के विस्तारपूर्ण और न्यायपूर्ण मूल्यांकन के लिए इस साहित्य की आलोचनात्मक व्याख्या की जानी चाहिए। इसीलिए मैं उनके (अकबर और उसके राज्य) कुछ सर्वाधिक सकारात्मक एवं नकारात्मक खूबियों की चर्चा करना चाहूँगा। हालाँकि इसके प्रकाशन की कुछ ही वर्ष बीते हैं, प्रोफेसर के0 ए0 निजामी के अकबर और धर्म52 की चर्चा सबसे पहले की जानी चाहिए क्योंकि अकबर पर भारतीय खोज का बड़ा भाग है।

भारतीय इतिहासकारों के रक्षक के रूप में निजामी ने अपने असीमित जीवन कार्य को मध्यकालीन भारतीय इतिहास53 के धार्मिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य को बेहतर तरीके से समझने के क्रम में पवित्र बना लिया है और ‘धर्म के कुछ पहलू’ और ‘13वीं सदी में भारतीय राजनीति‘54 और ‘इलियट का परिशिष्ट’ और ‘डाउसन का भारतीय इतिहास’55 के माध्यम से उन्होंने विश्लेषणात्मक भारतीय इतिहास के मध्यकालीन भारत को काफी सम्मिलित किया है। मध्यकालीन भारत में सूफी काल पर उनका अध्ययन भी इतना ही महत्वपूर्ण है जो उनके असाधारण अध्ययन और स्वयं को उनके पसंदीदा सूफी संतों की वैचारिक प्रक्रिया में ढ़ालने की अवधारणा क्षमता को दर्शाता है। निजामी की पुस्तक “अकबर और धर्म“ अपेक्षाकृत अरुढ़िवादी और निजी पुस्तक होने के कारण रूढ़िवादी एवं मामूली नहीं कहा जा सकता है। यह एक इतिहासकार का विवादास्पद कार्य है जिसका कद किसी पुर्नावलोकन करने वाले को लेखक के विशाल महत्व के निर्णय से उत्पन्न विवादास्पद बयान देने में हिचकिचाहट पैदा करेगा। निजामी को अकबर के धर्म के विषय में लगभग सब मालूम है और उनके कार्य को इस विषय से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण स्रोत का भंडार कहा जा सकता है। इस कार्य से संबंधित दस्तावेज (च्च्ण्-343-413) अकबर और उसके प्रकाशन पर हमारे ज्ञान में काफी वृद्धि करती है एवं इसकी व्याख्या निजामी के लिए गए स्रोत सामग्री में दक्षता को दर्शाते हैं। हालांकि उन कार्यों में वे विषयवस्तु को लेकर सकारात्मकता थे, पर ‘अकबर और धर्म’ में वे अकबर के प्रति नकारात्मक था यूँ कहें दोतरफेपन के रूप में दिखाए गए है। यह निश्चित रुप से पूर्वाग्रह का बड़ा कारण हो सकता है। असामंजसतापूर्ण व्यवहार का दूसरा स्रोत अतिसंकीर्ण ऐतिहासिक यथार्थ हो सकता है। जिसमें अकबर को देखा गया है। धर्म के प्रति अकबर के दृष्टिकोण की खोज तब तक नहीं हो सकती जब तक हम इस तथ्य को ध्यान में ना रखें कि अकबर कोई मामूली इंसान नहीं था बल्कि इन सबसे ऊपर एक विशाल और विषमांग साम्राज्य का सजग शासक था और कुछ समयावधि की परिपक्वता के बाद उसने जानबूझकर एक महान शासक होने के रवैया का परिचय देते हुए धार्मिक महत्व को कमतर कर दिया। सैद्धांतिक तौर पर, अकबर के धार्मिक रवैये को उसके व्यक्तित्त्व एवं उसके राजनीति से संबंध के दूसरे पहलूओं से अलग करना सही नहीं है। अब हम कुछ उन कथनों के विषय में शंका व्यक्त करेंगे जो इससे घटित होते हैं।

अकबर के साथ मंगोल परंपरा की निरंतरता उजागर करने के लिए लेखक ने शुरू में ही एक रहस्यमयी ‘अलंकावा प्रथा’ की रचना की असफल कोशिश की है जिसे वे देखते हैं कि अकबर ने अपनी अवधारणा बचपन में ही विकसित कर ली है। निजामी के मुताबिक मंगोल धार्मिकता को सिद्ध हुए बिना मान लिए जाने की विशेषता के छः कारण है जिसने अकबर के चरित्र को प्रभावित किया होगा। (च्च्ण्-6-9) यदि हम इन विशेषताओं को करीब से देखें, सिर्फ 6 ही विशेषता (“जानवरों की सुरक्षा का अगला क्रम“) को आखिरी तौर पर अस्थाई रवैया कहा जा सकता है, बाकी का विशेष यायावर प्रथा से कोई लेना देना नहीं है। दूसरी प्रथा (“ये विश्वास कि सूर्य जीवन का आधार स्रोत है“) किसानों की संस्कृति में काफी फैली हुई पूर्वजों की मान्यता है, पर जहाँ तक अकबर का सवाल है तो ये सब जानते हैं कि उसने सूर्योपासना की कला पारसियों से सीखी थी। हम ये अंदाज लगा सकते हैं कि निजामी को अकबर के इस्लाम के प्रति नजरिए का मंगोल प्रथा से संबंध तलाशने के लिए इस तथाकथित अलंकावा प्रथा की जरूरत थी। मुश्किल ये है अकबर का इस्लाम के प्रति बदलता नजरिया, शुरुआती स्वीकार्य से लेकर बढ़ती समानता, उन्नीसवीं सदी के आखिर में एक प्रकार की युद्ध स्थिति को अत्यंत महत्व के पेचीदा ऐतिहासिक तथ्य के रूप में और एक विस्तृत सामाजिक-ऐतिहासिक प्रसंग के रूप में विश्लेषन ना करके नकारात्मक रूप में लिया गया। इस प्रकार के निजी प्रस्ताव से, ऐतिहासिक घटना नीतिगत मुद्दा बन जाती है और उनका बरताव निश्चित कारणों से हमेशा विश्वास नहीं करती। अकबर की निरक्षरता का उदाहरण भी ऐसी ही एक घटना है। लेखक के अनुसार “उसके पूर्णतया निरीक्षण होने की बात पर ज्यादातर लोग विश्वास नहीं करते“ (च्च्ण्-18) और वह इस आरोपित कहानी के मुख्य तंपेवद कमजतम से नकार देता है : “निरक्षरता की बात को चापलूसों ने उसके ईश्वर से सीधे प्रेरित होने का संकेत मानकर बढ़ावा दिया था।“ (च्च्ण्-25) पैगंबर मोहम्मद के निरक्षर होने के विषय में भी यही कहा जा सकता है। समस्याएँ हैं कि समकालीन स्रोत अर्थात् उसका बेटा जहाँगीर और फादर मॉन्टसेरेट का अपमान वक्तव्य अकबर की निरक्षणता के साक्षी हैं और उनकी सच्चाई के लड़ने के लिए किसी को भी नए साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे। अकबर के इस्लाम के प्रति आलोचनात्मक रवैया के साथ, निजामी अकबर इस्लाम के प्रति अच्छे एवं स्थापित न्याय को बनाने की योग्यता को लेकर विवाद करते हैं। अकबर के ज्ञान को लेकर स्मिथ के च्ंरवतंजपअम मत को स्वीकारते हुए।56 निजामी कहते हैं कि अकबर को कुरान या इस्लामिक मान्यताओं की पर्याप्त जानकारी नहीं थी। (च्ण्25) और भी, “दीन-ए-इलाही“ की उसकी विचारधारा भी उसके परिपक्व धार्मिक विचार का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं करती है। यह सब भोलापन और मनमौजी की तरह है। (च्ण्25). “वह धर्म के कुछ सिद्धांतों को जानता था पर उनकी वास्तविकता से वाकिफ नहीं था“ (च्ण्26). यहाँ हम एक बार फिर अनिश्चित रहा पर आ गए जिनका निर्णय महत्व पर आधारित है। इसके अतिरिक्त यदि इन सारे आरोपों को सही मान लिया जाए, पैगंबर साहब या महान सुधारक लोग नियमानुसार धार्मिक इतिहासकार नहीं थे। अकबर ने किसी भी तरीके से दूसरे धर्म को मानने वालों पर अपना धार्मिक मत थोपने की कोशिश नहीं की, लेकिन इसके ठीक विपरीत उसने बिना कोई हानि पहुँचाए अपने मत को मानने की छूट थी। उसका धार्मिक ज्ञान, इबादतखाने में हुए विवाद से ही मुख्यतया शुरू हुआ और ये उसके किसी भी खास धर्म को बढ़ावा न देने के लिए काफी था।

अकबर की धार्मिक नीति के प्रति निजामी के रवैया के आधार पर, यह समझा जा सकता है पर स्वीकारा नहीं जा सकता, वह “दीने-इलाही“ की आलोचना करते हैं57 कि वह अकबर के धर्मों को जानने की उत्सुकता58 को नकारते है और वह सलाहकारों पर दोषारोपण करते हैं कि “उलेमा-ए-सु“ ने सम्राट को भ्रष्ट कर दिया (अकबर का असामान्य व्यवहार पूरी तरह से उसकी सभा से जुड़े ‘उलेमा‘ की दुष्ट भूमिका के कारण था)59 निजामी अबुल फजल के साथ-साथ उसके पिता एवं भाई के विषय में एक अन्यायपूर्ण वाक्य कहते हैं (च्च्ण्82, 88 और च्ेंपउ)60 आगे विस्तार में गए बिना, कोई भी यह स्वीकार कर सकता है कि अकबर के ऊपर निजामी के कार्य एक ऐसी पुस्तक है जिसके सारे सिद्धांत नितांत निजी लेख है।

इसी साल भारत में एस0 एम0 बर्क के द्वारा अकबर पर एक और ग्रंथ प्रकाशित हुआ।61 यह अकबर के जीवन और कार्यों के बारे में एक विश्वसनीय मूल्यांकन है, जो वास्तविक या विवादित होने का ढोंग नहीं करती। बर्क पंजाब के एक गाँव में जन्मे थे62 और काफी जानकर होने के साथ ही भारत के प्रति उनकी सहानुभूति भी थी। वे विद्वान और यथार्थवादी इंसान हैं और भारतीय नागरिक सेवा में जज, मंत्री, पाकिस्तान में हाई कमिश्नर और मिन्नेसोटा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं सलाहकार भी रह चुके हैं। उनके कार्य परिज्ञान से भरपूर है और अनुभव पर आधारित बौद्धिक साक्ष्य का प्रमाण रखते हैं। अकबर के प्रति उनका रवैया पुस्तक में इनकी वाक्पटुता से स्पष्ट हो जाता है, और यह स्पष्ट है कि वह अकबर के मकसद एवं समर्पण को समझते थे।

बर्क के कार्य लॉरेन्स बिनयॉन की सहानुभूति अकबर से तुलना योग्य है, जो 30 के दशक में प्रकाशित हुई थी।63 एवं जो अकबर के व्यक्तित्व और उसके गहरे समर्पण को कलाकार के नजरिए से वर्णित करती है। बर्क की पुस्तक अकबर की जिंदगी के साथ-साथ उसके कार्यों के कुछ पक्षों पर गौर करती है। जैसे उसकी धार्मिक मान्यताएँ, सरकार और कलात्मकता। लेखक के स्रोत अंग्रेजी के अनुवादों के मुख्य भागों के लिए है, लेकिन कुछ समय बाद वे पुनः असली लेखों के आधार पर वे अनुवादों में हुई कुछ गलतियों का परीक्षण करते हैं। जहाँ तक पहले के शोधकार्यो का संबंध है, तो कुछ पूर्वाग्रहग्रसित एवं एकतरफा दृष्टिकोण पर कुछ निर्णय देते हैं, उदाहरण के लिए भी0 ए0 स्मिथ और आई0 एच0 कुरैशी और और असांप्रदायिक भारतीय इतिहास के प्रथाओं की सुदृढ़ता। अकबर के धर्म के प्रति रवैया के प्रति उनका व्यवहार विशेषतः सहानुभूतिपूर्ण है हालांकि हम इसमें जहाँ-तहाँ कुछ अप्रमाणित कथन पाते हैं।64 बर्क के कार्य को मुगलकाल में रुचि रखने वाले हर विद्यार्थी के लिए अकबर और उसके व्यक्तित्व महत्वपूर्ण जरिया कहा जा सकता है वे हमारे समय से अकबर के संबंध को संक्षिप्त में यूँ बताते हैं :- “अकबर की सबसे सहनयोग्य उपलब्धि प्रशासन की एक ऐसी प्रणाली है जिसकी रूपरेखा उपमहाद्वीप में अभी भी चल रही है और उसकी सबसे प्रशंसनीय विशेषता है उसके विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों वाले साम्राज्य सब पूर्णरूपेण स्वतंत्र थे।“65

1989 में डगलस आई0 स्ट्रिउसैण्ड की लिखी एक पुस्तक “मुगल साम्राज्य का निर्माण“ भी प्रकाश में आई।66 इस पुस्तक को भारत में कोई लोकप्रियता नहीं मिली जिसकी मुख्य वजह भारतीय इतिहासकारों के प्रति उसका अनुकंपित एवं गलत सूचना एवं इसके साथ स्रोतों का असंतोषजनक प्रयोग रही है।67 एम0 अतहर अली के इस कार्य की आलोचना की वैधता को स्वीकारते हुए, हालांकि कोई इसके सकारात्मक पहलुओं को स्पष्ट कर सकता है, जबकि ये अबतक संतोषजनक सिद्ध नहीं हुए हैं, पर भविष्य में होने वाले शोधों के लिए इनको पर्याप्त प्रतिक्रियावादी माना जा सकता है।

मुगल साम्राज्य का ग्राम विस्तार एक महत्वपूर्ण मसला है जिसने प्रशासन की प्रणाली, कर तथा सेना के साथ-साथ आपसी सांस्कृतिक प्राप्ति को काफी स्थिरता प्रदान की। इस पर स्ट्रिउसैण्ड कुछ उपयोगी पर अल्पज्ञान युक्त, तुलना करते हैं, ऑटोमॉन एवं मुगल साम्राज्य के बीच।68 वे शस्त्र युक्त ग्रामीणों या जमींदार प्रथा के अस्तित्व की बात को भारतीय असलियत की विशेषता बताते हुए कहते हैं “कोई यह कह सकता है कि मुगल साम्राज्य का विस्तार भिन्न-भिन्न प्रकारों की लूटपाट एवं तात्कालिक राजनीतिक श्रेष्ठता के कारण हुआ था।“69 किसी भी साम्राज्य की अवधि काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उनमें अपने साम्राज्य (शासन) के फैलाव की कितनी क्षमता है (उदाहरण के लिए, पारंपरिक इस्लाम की केंद्रीय भूमि के हेलेनाइजेशन, रोमनाइजेशन या सफल इस्लामीकरण के दूरगामी परिणाम) अकबर ने स्पष्ट तौर पर एकरूप एवं सुव्यवस्थित समाज के निर्माण के लिए एक सम्मिलित संस्कृति और संयुक्त “विश्व-अर्थव्यवस्था“ साथ महान कदम उठाए। उसके उत्तराधिकारी हालाँकि उसके प्रयासों को जारी रखने में असफल रहें और हिंदू-मुस्लिम संबंधों का विस्तार थक गया।

उपरोक्त समस्या के विषय में लेखक मुगल सेना70 की बनावट का फिर से परीक्षण करते हैं और कथित तौर “गन पाउडर साम्राज्य“ धारणा जो पश्चिमी साहित्य71 में दूर तक फैली है, उसपर विश्वस्त तरीके से आपत्ति करते हैं लेकिन इरफान हबीब इस पर पहले ही विवाद कर चुके हैं72 और इस बात पर जोर देते हैं कि मुगल सेना की विशेषता पैदल सेना के साथ तोपखाने और घुड़सवार तीरंदाज थे। मुगल सेना के बारे में हमारी जानकारी के लिए ये वाकई में महत्वपूर्ण योगदान है, पर इसके लिए और सबूत चाहिए।

अगला महत्वपूर्ण मुद्दा जो गैरजरुरी नहीं है, वो है अकबर के द्वारा सृजित शासन एवं प्रशासन का सिद्धांत। स्ट्रिउसैण्ड के मुताबिक, इस सिद्धांत में प्रशासनिक सुधार के साथ सही प्रतिकात्मक स्वरूप सम्मिलित था और सामूहिक सर्वोच्चता का त्याग और अपेनेज (।चचंदंहम) सिस्टम का तिमुरीद के निर्णयों के साथ संबंध विच्छेद था।73 इस महत्वपूर्ण सवाल के संतुष्टिदायक हल के लिए प्राकृतिक तौर पर एक विस्तृत तुलनात्मक खोज की जरूरत है जिसमें विभिन्न शासन के सिद्धांत जिसमें पारंपरिक इस्लाम, दिल्ली सल्तनत और साफाविद शासन के साथ ऑटोमॉन तुर्कों के मध्य और इसके साथ ही मध्यकालीन हिंदू राज्यों पर विजय शामिल है।

आखिर में परंतु अल्प नहीं, हम निष्कर्ष अध्याय में एक रुचिकर सैद्धांतिक विवेचन पाते हैं जो “मुगल नीति के प्रकार“ से संबंधित है और इसमें लेखक मुगल साम्राज्य पर आधारित सिद्धांतों की छानबीन करते हैं और के0 विटफॉगेल के “पूर्वी निरंकुश शासन“, एस0 एन0 आइसिन्सटैड के “दफ्तरशाही निरंकुश शासन“, एस0 ब्लैक के “पितृसत्तात्मक दफ्तरशाही निरंकुश शासन“ के साथ-साथ कथित “गन पाउडर साम्राज्य“ सिद्धांत को नकारते हैं और बर्टन के “खंडात्मक राज्य“ के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं।74 इस प्रकार के सैद्धांतिक मौलिक तर्क निश्चित तौर पर हमें काफी दूर तक नहीं ले जाएंगे और उसकी परिभाषा घिसी-पिटी बात से ज्यादा नहीं है :

कोई भी मुगल साम्राज्य को इस्लाम के मिश्रण के रूप में केंद्र पर विस्तृत अर्थ में देख सकता है और भारत में स्वयत्ता समझा सकता है, कोई मुगल सरकार को खंडों की स्थानांतरित संरचना द्वारा प्रोत्साहित केंद्र-राज्य के रूप में वर्णन कर सकता है।75

अंतिम कथन लगभग सभी साम्राज्यों की अच्छाई बताता है और “पृथक्कीकृत राज्य“ की धारणा को पूर्व-औपनिवेशि अफ्रीकन राज्यों के मामले में ज्यादा भली प्रकार से अपनाया जा सकता है।

यह स्पष्ट है कि, इस संक्षिप्त सर्वेक्षण से की अकबर पर शोध, अपने सारे दोषों, असफलताओं और स्पष्टीकरण के बावजूद सफलता की ओर अग्रसर है एवं पहले ही कुछ सकारात्मक परिणाम दर्शा चुके हैं और भविष्य की धारणाओं के विश्वस्त दृष्टिकोण रखते हैं।

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5ण् ब्रडेल, आप-सिट

6ण् इरफान हबीब, “दी एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया“, 1556-1707, बम्बई, 1963 एम0 अतहर अली, “दी एपरेटस ऑफ एम्पायर : अवार्ड ऑफ रैंक, ऑफिसेस एण्ड टाइल्स टू दी मुगल नोवेल्टी“, 1573-1658 (नई दिल्ली, 1985), एवं शिरीन मूसवी, “दी इकोनोमिक ऑफ दी मुगल एम्पायर“, बण् 1595, ए स्टेटिकल स्टडी (दिल्ली, 1987)

7ण् टी0 राय चौधरी एण्ड इरफान हबीब (एडी0), दी कैम्ब्रिज इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया (बण्1200.ब्ण्1750), (नई दिल्ली, 1982)

8ण् इरफान हबीब, “इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ मेडिएवल इंडिया“, इन आर0 एस0 शर्मा (एडी0) “सर्वे ऑफ रिसर्च इन इकोनॉमिक एण्ड सोशल हिस्ट्री ऑफ इंडिया“ दिल्ली, 1986, पृ0-109-146. सतीश चन्द्र “राइटिग्स ऑन सोशल हिस्ट्री ऑफ मेडिएवल इंडिया : ट्रेण्ड एण्ड प्रॉसपेक्ट“, इन आर0 एस0 शर्मा (एडी0) आप-सिट, पृ0-147-168.

9ण् सोशल साइंटिस्ट, आप-सिट।

10ण् इरफान हबीब, “पोटेनसियेलिटिज ऑफ कैपटलिस्टिक डेपलेपमेंट इन द इकोनॉमी ऑफ मुगल इंडिया“ जर्नल ऑफ इकोनोमिक हिस्ट्री, टवसण् ग्ग्प्प् छव.1 (यू0 एस0 ए0, मार्च, 1969), पृ0-32-70.

11ण् इक्तेदार आलम खान, “दी नोवेलिटी अण्डर अकबर एण्ड दी डेवलपमेंट ऑफ हिज रीलिजियस पॉलिसीज, 1560-1580“, जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, लंदन, 1968, पृ0-29-76.

12ण् एम0 अतहरी अली, “अकबर एण्ड इस्लाम 1581-1605“, इन मिल्टन इसपाइरल एण्ड एन0 के वागले (एडी0) “इस्लामिक सोसाइटी एण्ड कल्चर“, एसेज इन ऑनर ऑफ प्रो0 अजीम अहमद, नई दिल्ली, 1983, पृ0-130-133.

13ण् सावित्री चन्द्र, “अकबर्स कॉनसेप्ट ऑफ सुलह-कुल, तुलसीज कॉन्सेप्ट ऑफ मर्यादा एण्ड दादूज कॉसेप्ट ऑफ निपख : ए काम्प्रेटिव स्टडी“, इन सोशल साइंटिक्ट, आप-सिट, पृ0-31-37.

14ण् एम0 अतहर अलीज पेपर, “ट्रांसलेशन ऑफ संस्कृत वर्कस एट अकबर्स कोर्ट“, पृ0-38-45.

15ण् बी0 एल0 भंडारी, “दी प्रोफाइल ऑफ अकबर इन कान्टेम्परेरी राजस्थानी लिटरेचर“, पृ0-46-53. एण्ड शिरीन मेहता, “अकबर एज रिफलेक्टेड इन दी कॉन्टेम्पटरी जैन लिटरेजन“, पृ0-54-60.

16ण् वीसेन्ट ए0 स्मिथ, “अकबर द ग्रेट मुगल 1542-1605“, ऑक्सफोर्ड यूर्निवसिटी, 1917, पृ0-415.

17ण् ई0 मैकनल बर्न्स, पी0 ली0 राल्फ, आस0 इ0 लर्न, एण्ड एस0 मैचम, “वर्ल्ड सिविलाइजेशन“ (मेवन्थ एडीशन, न्युयार्क एण्ड लंदन, 1986), च्ण् गपप

18ण् आर0 एल0 ग्रीज, आर0 जालर, पी0 एच0 बी0 कैनिसटारो एण्ड मूर्फेम “सिविलाइजेशन ऑफ वर्ल्ड“, न्युयार्क, 1990, च्ण् गगगअपपप

19ण् इविड, पृ0-468.

20ण् इक्तेदार आलम खान (एडी0), “अकबर एण्ड हिज ऐज“ (पब्लिस्ड वाच आई0 सी0 एच0 आर0, नई दिल्ली), इरफान हबीब (एडी0) “अकबर एण्ड हिज इंडिया“ ऑक्सफोर्ड युर्निवसिटी प्रेस दिल्ली, 1977.

21ण् शीरीन मूसवी, “मेकिंग एण्ड रिर्काडिंग हिस्ट्री : अकबर एण्ड अकबरनामा“ (पेपर प्रनेन्टेड टू दी सेमिनार ऑफ “अकबर एण्ड हिज ऐज“ आई0 सी0 एच0 आर0, नई दिल्ली, अक्टूबर, 1992

22ण् जे0 एफ0 रिचार्ड, “दी इम्पेरियल स्टेट फैशन्ड वाय अकबर“ (पेपर प्रनेन्टेड टू दी सेमिनार ऑफ “अकबर एण्ड हिज ऐज“ आई0 सी0 एच0 आर0, नई दिल्ली, अक्टूबर, 1992

23ण् इरफान हबीब, “दी इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ मेडिएवल इंडिया“ इन आर0 एस0 शर्मा, (एडी0) आप-सिट, दि 11.

24ण् शीरीन मूसवी, “दी इकोनॉमी ऑफ दी मुगल एम्पायर“ आप-सिट पृ0-127िए 141ए 149 एण्ड 315

25ण् के0 ए0 निजामी, “अकबर एण्ड रीलिजन“, पृ0-341.

26ण् सुगाता बोस (एडी0), “साउथ एशिया एण्ड वर्ल्ड कैपिटलिज्म“, दिल्ली, 1990.

27ण् आइडेम, “दी मार्डन वर्ल्ड सिस्टम : टवसण्.प् कैपिटलिस्ट एग्रीकल्चर एण्ड दी आरीजिन्स ऑफ दी यूरोपियन वर्ल्ड इकोनॉमी इन दी सिक्सटींथ सेनचुरी (न्युयार्क, 1974)

28ण् आइडेम, “इनकॉरपोंरेशन ऑफ इंडियन सबकॉन्टीनेट इन टू दी कैपिटलिस्ट वर्ल्ड इकोनॉमी“, दी इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली, ;म्च्ॅद्ध टवसण्.ग्ग् छवण् 4 (1985) पृ0-28-35.

29ण् सी0 ए0 बाचलें, “इण्डीजेनश सोशल फॉरमेशन एण्ड दी वर्ल्ड सिस्टम : नार्थ इंडिया सिन्स ब्ण् 1700“, इन बोस (एडी0), आप-सिट, पृ0-112-139.

30ण् डेविड लुडेन, “वर्ल्ड इकोनॉमी एण्ड विलेज इंडिया“, 1600-1900, “एक्सप्लोरिंग दी एग्रेरियन हिस्ट्री ऑफ कैपिटिलिज्म“, बोस (एडी0), आप-सिट, पृ0-166.

31ण् इविड

32ण् इविड

33ण् ब्राडेल, टवसण्.प्प्प्ए आपसिट, पृ0-484-535.

34ण् आइडेम आपसिट टवसण्.प्ए दी स्ट्रक्चर्स ऑफ एमरी डे लाइफ (न्युयार्क 1981), पृ0-33ि

35ण् इविड

36ण् इविड, पृ0-28.

37ण् के पोलनी, दी ग्रेट ट्रांसफॉरमेशन (बोस्टन, 1957).

38ण् ब्रॉडेल, टवसण्.प्ए आपसिट, पृ0-24.

39ण् वर्ल्ड इकोनोमिज इन आइडेम टवसण्.प्प्प्ए आपसिट, पृ0-20-88.

40ण् इविड, पृ0-20.

41ण् इविड, पृ0-79.

42ण् इविड, पृ0-22.

43ण् इविड, पृ0-441-466.

44ण् इविड, पृ0-467-484.

45ण् इविड, पृ0-484-535.

46ण् इविड, पृ0-522.

47ण् इविड, पृ0-502.

48ण् ब्रॉडेल, टवसण्.प्प्प्, आपसिट, पृ0-506.

49ण् इविड, पृ0-532.

50ण् इविड, पृ0-455.

51ण् इविड, पृ0-522.

52ण् के0 ए0 निजामी, अकबर एण्ड रिलिजल, आपसिट.

53ण् अहमद, लिटरेरी कान्ट्रीब्यूशन ऑफ प्रोफेसर के0 ए0 निजामी (दिल्ली, 1990).

54ण् के0 के0 निजामी, सम ऑस्पेक्ट ऑफ रिलिजन एण्ड पॉलिटिक्स इन इंडिया डयूरिंग दी थरटींथ सेन्चुरी (फर्स्ट पब्लिस्ड अलीगढ़, 1961, रिप्रिंट, इदाराह-द अदावियात-इ-दिल्ली, दिल्ली, 1978.

55ण् आइडेम, सपलीमेट टू इलियट एण्ड डाउसन्स हिस्ट्री ऑफ इंडिया, टवसण्.प्प् एण्ड टवसण्.प्प्प् (इदाराह-इ-अदाबियात-ई-दिल्ली, दिल्ली, 1986)

56ण् स्मिथ, आपसिट, पृ0-337.

57ण् के0 ए0 निजामी, “अकबर एण्ड रिलिजन“, आपसिट, पृ0-133.

58ण् इविड, पृ0-215.

59ण् आपसिट, पृ0-91.

60ण् आपसिट, पृ0-88.

61ण् एस0 एम0 बर्क, अकबर दी ग्रेटेस्ट मोगुल (नई दिल्ली, 1989), पृ0-249.

62ण् इविड, पृ0-233, थ्द.85

63ण् लॉरेन्स बिनयान, अकबर (एडिनवर्ग, 1932) पृ0-165.

64ण् बर्क, आपसिट, पृ0-99, इविड, पृ0-126-129

65ण् इविड, पृ0-215.

66ण् स्ट्रेसंड, आपसिट।

67ण् इविड, थ्द.8

68ण् स्ट्रेसंड, आपसिट, पृ0-66ि

69ण् इविड, पृ0-81.

70ण् इविड, पृ0-65ि

71ण् एम0 जी0 एस0 हॉगसन, आपसिट, पृ0-59-98, डब्ल्यु0 एच0 मैकनेल, दी परसूट ऑफ पावर (शिकागो, 1982), पृ0-95-98, जॉन एण्ड हॉल, पावर एण्ड लिवर्टीज, दी काउसेस एण्ड कन्सेक्वेंस ऑफ दी राइज ऑफ दी वेस्ट (पेलिकन बुक्स, 1986), पृ0-103-109.

72ण् इरफान हबीब, “एग्रेरियन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया“ आपसिट, पृ0-317.

73ण् स्ट्रेसंड, आपसिट, पृ0-152.

74ण् इविड, पृ0-180णि्

75ण् इविड, पृ0-181.


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