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ओमप्रकाश वाल्मीकि की नजर में दलित साहित्य की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक मान्यताएँ
नेहा कुमारी
शोध-छात्रा
विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की नजर में दलित साहित्य की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक मान्यताएँ
बहुत से आलोचकों और रचनाकारों की यह धारणा बन गई है कि दलित साहित्य प्राचीन संस्कृति, कला, साहित्य का तिरस्कार करता है। पूर्ववर्ती साहित्यकारों पर छींटाकशी करके उनकी आलोचना करता है और तमाम हिन्दी साहित्य को स्वर्ण साहित्य कहता है। यह तथ्य पूरी तरह सही नहीं है। बल्कि दलित साहित्य की मूल धारणाओं और मान्यताओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करके देखने से यह भ्रम पैदा होता है। दरअसल दलित साहित्य पूर्व साहित्य के पुनमूल्यांकन की बात करता है। पूर्व साहित्यकारों की रचनाओं को अपने दृष्टिकोण से देखना चाहता है। उन गलत प्रस्थापनाओं की व्याख्या करता है, जो मानव-विरोधी हैं। अंधश्रद्धा, आस्था की जगह गहन विश्लेषण और उसके विकास की सही दिशाओं, ऐतिहासिक और सामाजिक परिपेक्ष में साहित्य के नियमों का अन्वेषण करने की दिशा में कार्य करता है। साहित्यक कृतियों को धार्मिक पुस्तक बना देने का विरोध करता है।
संस्कृति और परंपरा के प्रति आग्रहशील वही रचनाकार दिखाई पड़ते हैं जिन्हें जनसाधारण से न कोई हमदर्दी है और न ही वे उनकी चिंता और सरोकारों में कहीं शामिल है। अनेक प्रगतिशील एवं मार्क्सवादी कहे जाने वाले रचनाकार इस प्रवृत्ति के शिकार हैं। इनकी पैरवी करनेवाले समीक्षकों की भी कमी नहीं है। उनका ज्यादातर समीक्षा साहित्य ऐसे ही लेखकों, कवियों के इर्द-गिर्द घूमता है। वे इन रचनाकारों को इस बात के लिए तैयार नहीं कर पाते हैं कि उनके लेखन में दलितों, मजदूरों और संघर्षरत अन्य शोषितों, जनमानस की क्या स्थिति है, उनके प्रति क्या उत्तरदायित्व महसूस करते हैं।
दलित साहित्य किसी भी समस्या से रूबरू होते समय उनके वस्तुगत तथ्यों को सर्वप्रथम देखता है, अमूर्त परिभाषाओं और अन्य मापदंडों को नहीं, क्योंकि अमूर्त बहस हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने देती। महानता और प्रासंगिकता की बहस को सार्थक एवं महत्वपूर्ण होने देना लेखन का महत्वपूर्ण दायित्व हैं। यह आवश्यक है कि तत्कालीन वस्तु को गहराई से विश्लेषिण करके उसकी जटिलता को उद्घाटित करें।
डॉ0 अम्बेडकर ने कहा था : ‘हमारे जीवन, कर्तव्य और संस्कृति की ओर हमारा ध्यान नहीं है। अन्तुर्मख होकर विचार करने से हमारे सामने वह भयावह स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि हमारे जीवन-मूल्य और सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने के लिए दलित साहित्यकारों को जागरूक और प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। प्रत्येक उपन्यास, कथाओं की सीता लक्ष्मण रेखा पार करके आगे जा चुकी है। दुर्योधन के दरबार में द्रौपदी का वस्त्र हरण हो रहा है। शकुंतला को दुष्यन्त अपना सही परिचय नहीं दे रहा है, इसलिए शकुन्तला को बनवास हो रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों का मैं आह्वान करता हूँ कि वे विभिन्न साहित्यिक विधाओं के द्वारा उदात्त जीवन-मूल्यों और सांस्कृतिक मूल्यों को रेखांकित करें। अपने लक्ष्य को मर्यादा में मत बाँधो, उसे और अधिक विशाल बनने दो। वाणी का विस्तार करो, अपनी लेखनी को केवल अपने प्रश्नों तक सीमित मत रखो। उसे तेजस्वी बनाओं जिससे गाँव फैलाकर अंधकार दूर हो सके। यह मत भूलो कि इस भारत देश में उपेक्षित दलितों का बहुत बड़ा विश्व है। अपनी रचनाओं के द्वारा उनकी वेदना को समझकर उनके जीवन को उज्जवल बनाने की कोशिश करो। यही मानवता की सच्चाई है।
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में रैदास और कबीर दास जहाँ एक ओर वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध खड़े दिखाई पड़ते हैं और सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं वे आध्यात्मिक दलदल में फँसकर उसी सामंती व्यवस्था में विलीन हो जाते हैं, जिसने वर्ण-व्यवस्था को पुख्ता किया है। उनकी क्रांतिकारिता सामाजिक स्तर पर गहन अभिप्रेरणा उत्पन्न करती है, हिन्दी साहित्य में विरोध के स्वर को ऊँचा करती है और आज भी प्रासंगिक बनकर दलित चेतना के लिए प्रेरणा बनती है। लेकिन रहस्यवाद, भक्तिवाद, निर्गुणवाद आदि उन्हें उसी परंपरा को जोड़ देते हैं जिसके विरुद्ध दलित साहित्य खड़ा है।
यही स्थिति तुलसीदास को लेकर है। डॉ0 रामविलास शर्मा, विष्णुचंद्र शर्मा, निराला आदि रचनाकारों, समीक्षकों को तुलसीदास का ब्रह्मणवादी एवं सामंती दर्शन और मान्यताएँ दिखाई नहीं पड़ते और उनके संस्कार इतने प्रबल हैं कि तुलसीदास ही नहीं और भी अनेक महाकवियों की वर्णवादी दृष्टि को नजरअंदाज करके उन्हें स्थापित करते हैं। यह हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विडम्बना है जो उसे सवर्णवादी ही सिद्ध करती है। उनके रचना संसार में जो नकारात्मक पहलू हैं, उन पर चर्चा करने से हिंदी रचनाकार, समीक्षक चुप्पी साध लेते हैं।
समकालीन हिंदी कविता के चर्चित कवि अरुण कमल तुलसीदास के प्रति भाव-विभोर होकर करते हैं : ‘तुलसीदास का काव्य करूणा, प्रेम, संघर्ष, आत्मसम्मान और निष्कम्प विश्वास का काव्य है और उनकी भाषा अर्थात जीवन के काव्य में बदलने का अनुकरण अब तक का सर्वाधिक सक्षम उपकरण है। जब तक हिंदी भाषा है, उसमें कविता का प्रयत्न है तब तक तुलसीदास सभी कवियों के लिए प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर तक की समवेत संयुक्त पाठशाला है और रहेंगे- श्री गुरु चरण सरोज रज निजमान मुकुर सुधार....’
हिन्दी साहित्य की इस दोहरी मानसिकता ने ही उसे एकांगी बनाया है। दलित साहित्य ऐसी किसी भी मान्यता का, चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक या साहित्यिक विरोध करता है। दलित साहित्य की मान्यताएँ नैतिक मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित हैं। इसलिए उसके दार्शनिक आख्यानों में ‘बुद्ध’ की गहन मानवीय सोच, उसे मानव केन्द्रित करती है।
ब्राह्मणवादी मानसिकता एवं बौद्धिक विमर्श ने जहाँ अवतारवाद की धारणा समाज में स्थापित की, वहीं इन अवतारों को नायक के रूप में साहित्य ने खड़ा किया। ये तमाम नायक दलित विरोधी हैं। स्त्रियों के प्रति उनका रवैया सामंती है। ‘ब्राह्मण’ के वे रक्षक हैं। ये तमाम नायक युद्धोन्मत्त हैं। सत्ता हासिल कर अपना वर्चस्व कायम करना ही उनका लक्ष्य है।
दलित साहित्य ऐसे नायकत्व का विरोधी है। समाज की जड़ता को तोड़क रवह मनुष्य की पक्षधरता को सर्वोपरि मानता है। सामाजिक बदलाव के माध्यम से वह सामाजिक समरसता चाहता है। भाईचारे और स्वतंत्रता की बात करता है। सबके लिए समानता का पक्षधर है। किसी भी वर्ग विशेष के आधिपत्य एवं वर्चस्व को चुनौती देता है। उन स्थितियों और कलात्मक पैंतरेबाजी का विरोध करता है, जो जातिवादी, धार्मिक रूढ़ियों, सामंती व्यवस्था को मजबूत करती हैं।
विद्वान आलोचक मैनेजर पाण्डेय कहते हैं : ‘हिन्दी के कई मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य की आलोचना करने के लिए उन्हीं तर्कों का सहारा लेते हैं जो कलावादियों के हैं। लेकिन कुछ दूसरे वर्गवाद के नाम पर दलित साहित्य का विरोध करते हैं। वर्गवाद और राष्ट्रवाद को मिलाकर जातीयता की धारणा बनाते हैं और साहित्य को उसी कसौटी पर कसते हैं। ऐसे लोग दलित साहित्य के आंदोलन को हिंदी साहित्य की जातीयता के लिए खतरा मानते हैं। लेकिन उनकी जातीयता के परम्पराबोध में हिन्दी क्षेत्र की दलित जातियों पर हुए अनन्त अमानुषिक अत्याचारों की कोई स्मृति नहीं होती और दलितों के संघर्ष की कोई पहचान भी नहीं। ऐसी जातीयता और उसके परम्पराबोध को दलित क्यों स्वीकार करेंगे।’
हिन्दी साहित्य में एक विचित्र परंपरा दिखाई पड़ती है, साहित्य में रेखांकित ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से ही देखा जाता है। दलित जीवन को समझने के प्रयास में भी गैर-दलित जीवन ही सोच और दृष्टि पर हावी रहता है। यानी ऊपर से नीचे उतरते हैं। जो तस्वीर हमारी सोच में रची-बसी है, उसी की पहचान सुनिश्चित करते हैं, फिर नई-नई परिभाषाएँ गढ़ते हैं। खुद ही प्रश्न करते हैं और खुद ही उनके उत्तर भी तय कर लेते हैं। इसीलिए दलित साहित्य के संदर्भ गड्डमड्ड होने लगते हैं। दलित जीवन और उससे जुड़े संदर्भों को देखने की चेष्टा में सबसे बड़ी सीमा दृष्टि की होती है- सारा ध्यान जातीय आधार पर होता है। उसके बाद जो थोड़ा-बहुत बचा रहता है, वह मात्र पुनरावृत्ति होती है। रचनाधार्मिता की तमाम ऊर्जा तो अपनी संस्कारगत मनोवृत्तियों को सहेजने में ही खर्च हो जाती है।
हिन्दी साहित्य में दलित पात्र की मानवीय संवेदनाओं को जिस गहन अभिव्यक्ति की दरकार थी, वहाँ वे सिर्फ दासतामूलक और हीनताबोध से भरे हुए ही रहे। नकारात्मक चरित्र की पराकाष्ठा से गुँथे हुए। दलित अस्मिता को अस्मिता को पहचानकर उसे मानवीय दृष्टिकोण से देखने के बजाय सरलीकृत नुस्खों की मार्फत ही देखा गया है या फिर उसकी व्याख्या की गई और वे हाशिए के चरित्र होकर रह गए हैं।
ग्रामीण संस्कृति में दूसरे के श्रम एवं संघर्ष पर अपनी समृद्धि बनाकर शोषण के हथकंडे अपनाना संस्कृति का हिस्सा रहा है। जिसमें उच्च वर्ग के वे तमाम लोग शामिल रहे हैं जिन्हें समाज में आदर और सम्मान प्राप्त था।
14 अक्टूबर, 1956 को दिन डॉ0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते समय जो 22 प्रतिज्ञाएँ की थीं, वही दलित साहित्य की धार्मिक, सांस्कृतिक मान्यताओं का आधार हैं।
दलितों का जीवन जहाँ सामाजिक उत्पीड़न, शोषण, दमन से भरा हुआ है। वहीं व्यवस्था के नाम पर लादी गई मर्यादाएँ, बंधन दलित जीवन की विभिन्नताएँ बनकर रहे हैं। आर्थिक विवशताओं और विसंगतिपूर्ण स्थितियों ने दलित जीवन को नर्क बनाया है। ग्रामीण परिवेश के जातीय उत्पीड़न से पलायन कर शहरों, नगरों की ओर आनेवाले दलितों के भीतर हीनता भाव इतना गहरा होता है कि उसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है।
जिस पंचायती राज की रूमानी कल्पना की कशीदेकारी से हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है, वही पंचायती राज दलितों के लिए अभिशाप होता है। लोकतंत्र के नाम पर सबसे ज्यादा दलित ही छला गया है। गाँव के खेतिहर मजदूर दलित ही होते हैं। बिगारी प्रथा ने दलितों को घोर विपन्नता दी है। बेगार यानी बिना मूल्य का श्रम। दिन-भर मेहनत-मजदूरी करके भी शाम को भूखा रहे, यह अभिशाप नहीं तो और क्या है? यह आर्थिक शोषण भारतीय ग्राम-व्यवस्था का हिस्सा था। आज प्रजातंत्र युग में भी सामंती व्यवस्था का खुला नृत्य गाँव-कस्बों में होता है। इन सबसे भागकर दलित नगरों में आते रहे है जहाँ उन्हें सुरक्षा और रोजी-रोटी की गुंजाइश ज्यादा दिखाई पड़ती थी। कल-कारखानों में मजदूर बनकर दलितों ने एक नया जीवन शुरू किया।
दलित साहित्य ने इन प्रश्नों को गंभीरता से लिया है। दलित रचनाओं में आर्थिक समस्याओं को प्रमुखता से अभिव्यक्ति मिली है। रचनाओं में आर्थिक समस्याओं को प्रमुखता से अभिव्यक्ति मिली है। रजत रानी मीनू लिखती हैं : ‘आर्थिक विपन्नताओं से पग-पग पर घायल होने वाले दलित कवि का संवेदनशील हृदय अर्थाभाव के काले अभिशाप से घिरे हुए समूचे वर्ग को देखकर उद्वेलित हो उठता है। जन-जीवन से जुड़े तमाम प्रश्नों की रोशनी में अपने सुंदर सपनों को यथार्थ में साकार होते नहीं देख पाता है, तब वह प्रश्नों के समाधान तलाश करते अपने विचारों को कविता की शक्ल देकर पूरा करने का प्रयास करता है।’
डॉ0 धर्मवीर ने कविता में आर्थिक विपन्नताओं का जो चित्र उकेरा है, वह उल्लेखनीय है-
शोषण की अमर बेल,
दमन की महागाथा,
यातन के पिरामिड
उत्पीड़न की गंगोत्री
ऋणों के पहाड़
ब्याज के सागर,
निरक्षरों के मस्तिष्क,
महाजनों की बही
रूक्कों पर अँगूठों की छाप
ऊटपटाँग
जोड़ घटा, गुणा भाग, देना
सब एक
तमाम आर्थिक अवसादों, विभिन्नताओं के बावजूद दलित रचनाकार अपने समाज को अज्ञानता, दरिद्रता, हीनता से लड़ने की अदम्य इच्छा रखते हुए ाहित्य सृजन करता है। उसके अनुभव ही उसकी अभिव्यक्ति हैं और जीवन के कठोरतम क्षणों में सृजित शब्द उसके लिए महत्वपूर्ण हैं। मानवीय सरोकारों से जुड़े तमाम विचार उसे मान्य हैं, वे विचार जो मनुष्य को सम्मान से जीना सिखाते हैं।
क्रांतिमोहन अपने निष्कर्षों से यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि दलित समस्या सामाजिक एवं धार्मिक नहीं, आर्थिक है। उनका कहना है : ‘अछूत प्रथा भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व के संबंध स्थापित होने के बाद ही अस्तित्व में आई होगी। सामाजिक ऊँच-नीच का भाव अभिन्न रूप से आर्थिक ऊँच-नीच के भाव से जुड़ा है और आर्थिक ऊँच-नीच के भाव के मूल में भूमि का स्वामित्व और भूमिहीनता है।’
क्रांतिमोहन के इन निष्कर्षों के पीछे एक सोच और सृष्टि है जो दलित समस्याओं के उन बिंदुओं को लगातार अनदेखा करती रही है जो सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के द्वारा निर्मित हुए हैं। दलितों को संपत्ति जमा करने के अधिकार से वंचित किया गया। आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए। दंड विधान में दोहरे नियम रखे गए। वर्ण-व्यवस्था एवं सामन्ती-व्यवस्था, बेगार-प्रथा के तहत दलितों की आर्थिक विपन्नता निम्न से निम्नतर होती चली गई।
डॉ0 अम्बेडकर के निष्कर्ष कांतिमोहन या अन्य विचारकां, शोधकर्ताओं, अर्थवेत्ताओं से भिन्न हैं। उनका मानना है कि सभ्यता के विकास में एक ऐसी अवस्था आई जब लोग अपने-अपने स्थानों पर बस गए और खेती, गो-पालन आदि के साथ नियमित जीवन बिताने लगे। लेकिन अनेक लोग अनेक कारणों से सभ्यता की दौड़ में पीछे छूट गए। अन्त में जब इन बिखरे हुए, खानाबदोश या छितरे हुए लोगों ने सभ्य बस्तियों का हिस्सा बनने की कोशिश की तो बसे हुए लोगों ने इन्हें अपने समाज का अंग मानने से इन्कार कर दिया। बसे हुए और छितरे हुए लोगों के आचार-व्यवहार में तब तक बहुत फर्क आ चुका था। बसे हुए ज्यादातर लोग ब्राह्मण मत के प्रभाव में थे जबकि छितरे हुए लोग ज्यादातर बौद्ध थे। लेकिन बसे हुए और छितरे हुए लोगों के हित इस मायने में मेल खाते थे कि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत थी। इन छितरे हुए लोगों को बस्तियों से बाहर बसाया गया था। लेकिन बहुत दूर ना रहने पर भी दोनों के आचार-व्यवहार का भेद ना सिर्फ बना रहा बल्कि ऐतिहासिक कारणों से बढ़ता रहा और बसे हुए लोग छितरे हुए लोगों से अछूतों जैसा व्यवहार करने लगे। ये छितरे हुए लोग ही आज के अछूत हैं और सातवीं सदी तक यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था का रूप ले चुकी थी।
इस व्यवस्था ने दलितों को आर्थिक रूप से दीन-हीन बनाया है। दलित साहित्य में यह विचार उदात्त रूप से अभिव्यक्त हुआ है। दलित रचनाकार भारतीय सामाजिक व्यवस्था में असमान भूमि वितरण और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर अपनी रचनाओं में तल्ख टिप्पणियाँ प्रस्तुत करता है। आर्थिक मुद्दे मात्र आर्थिक ही नहीं, उनका सामाजिक आधार भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
दूसरी ओर सरकारी नौकरियों ने दलितों के एक अंश को जो आर्थिक प्रोत्साहन दिया है, उससे दलितों में आर्थिक सबलता की ओर जाने की जिजीविषा पनपी है। प्रतिशत अभी कम है। शुरूआत हो चुकी है। यह जिजीविषा दलित साहित्य में देखी जा सकती है।
संदर्भ :
12. डॉ0 भीमराव अम्बेडकर- दलित साहित्य सम्मेलन पत्रिका, 17 जनवरी, 1976.
13. अरूण कमल- कविता और समय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999.
14. डॉ0 मैनेजर पाण्डेय- दलित चेतना : सोच (सं. रमणिका गुप्ता), नवलेखन प्रकाशन, हजारीबाग (बिहार), 1998, पृ0-ग्प्.
15. रजतरानी मीनू- नवें दशक की हिन्दी दलित कविता, दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, नई दिल्ली, 1996, पृ0-77.
16. डॉ0 धर्मवीर- हीरामन, शेष साहित्य प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, 1989, पृ0-55.
17. कान्तिमोहन- प्रेमचन्द्र और अछूत समस्या, जनसुलभ साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1982, पृ0-5.
18. डॉ0 भीमराव अम्बेडकर- शूद्र कौन और कैसे? अनुवादक : भदन्त आनन्द कौसल्यान, 1949, पृ0-183.