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तरउनी गाँव, जिला-दरभंगा (बिहार) का बनफूल-नागार्जुन

मनोज कुमार

शोधार्थी, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर


डॉ. पवन कुमार सिंह

एसोसिएट प्रोफेसर, एस0 एस0 भी0 महाविद्यालय, कहलगाँव

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर




तरउनी गाँव, जिला-दरभंगा (बिहार) का बनफूल-नागार्जुन


हमारे बिहार प्रांत की धरती पर हिंदी साहित्य के इतिहास के सभी कालों में एक से बढ़कर एक रचनाकार हुए हैं। मैथिल कोकिल विद्यापति, संत दरिया साहब, संगम कवि धरणीदास, वैद्यनाथ मिश्र नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु इत्यादि हमारे बिहार प्रांत के मणि-रत्न हैं। संस्कृत, प्राकृत, पाली, मगघी, अपभ्रंश, बांगला, मैथिली और हिंदी भाषाओं के ज्ञाता ठहरे नागार्जुन। बिहार प्रांत के दरभंगा जिला अंतर्गत तरउनी में उन्होंने जन्म लिया था। तरउनी गाँव दो है, एक जमींदारों का गाँव है और दूसरा पंडितों का वे पंडित वाले तरउनी गाँव के निवासी ठहरे।

तरउनी गाँव में दो विद्यालय थे। एक आरंभिक शिक्षा के लिए और दूसरा ऊँची शिक्षा के लिए। उनका दाखिला प्रथम विद्यालय में हुआ, जिसमें बोर्ड की परीक्षा होती थी। उस साल मात्र नौ ही विद्यार्थी परीक्षा में बैठे थे, जिसमें 8 विद्यार्थी लुढ़क गये, मात्र एक ही विद्यार्थी सफल हुआ, चितनईया पार कर गये और वह कोई और नहीं-वैद्यनाथ मिश्र ‘नागार्जुन’ ही थे तो उनका उस समय गाँव में नाम हो गया। उनके बचपन के सबसे पहले गुरुजी थे श्री रामचंचल ओझा। वह लंबी खजूर की छड़ी हमेशा रखते थे। पाठशाला में छात्रों को धुनने के लिए एक गलती पर खजूर की दो छड़ी पड़ती। चार गलती पर विद्यालय से बाहर निकाल देते थे। नागार्जुन ने भी उन दिनों एक गलती की थी ‘दोष’ शब्द में तालव्य ‘श’ लिख दिया था। उनकी उस एक गलती पर गुरूजी की खजूर की दो छड़ी पड़ी थी।

शिक्षा की दशा नहीं सुधरी। तरउनी गाँव में आज भी खंडहर में तब्दील छप्पर-छानी में छायी गयी, घुन खाये शहतीरों और सड़े-गले बाँसों से बनी पुरानी पाठशालाएँ हैं, जिनमें पुराने ढ़र्रे की पढ़ाई करने वाले गुरूजी हैं, जो कोमल शरीर वाले बच्चों की पढ़ाई के लिए खजूर की छड़ी की पिटाई को एक कारगर दवाई मानते हैं। वहाँ गरीब ग्रामीणों के बच्चे भूखे पेट, साधनहीन छप्पर-छत विहीन चूनेवाली पाठशाला में गुरुजी की खजूर की छड़ी से मार खाते अक्षर-बोध पाते हैं, आज से 65 साल पूर्व की ग्रामीण पाठशालाओं के गुरुजी के हाथ में रहनेवाली खजूर या बाँस की छड़ी को ही व्यंग्य से ‘दुखहरण’ कहा जाता था। समाज में पूँजीपतियों और धन चोरों की संताने महँगे विद्यालय-महाविद्यालयों में पढ़ती हैं। हाल के दिनों ‘सारक्षण’ चित्रपट पर इसी दास्तान की झाँकी दिखलायी गयी है। भारत की ग्रामीण शिक्षा-व्यवस्था और उसकी विसंगतियों पर गहरी चोट करती हुई नागार्जुन की कविता में ‘दुखहरण’ और ‘आदमी के साँचे’ का तीखा और मारक व्यंग्य देखने योग्य है :

“घुन खाए शहतीरों पर बारह खड़ी विधाता बाँचे,

फटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिछ उतिया नाचे,

बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे,

इसी तरह दुखहरण मास्टर गढ़ता है आदमी के साँचे।“

नागार्जुन अंग्रेजी कम समझते थे, लेकिन अंग्रेजी का अखबार जरूर पढ़ते थे। इस दौरान उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया लेकिन उनकी बाल्यावस्था त्रासदी से भरी पड़ी थी। नन्हा बालक बैद्यनाथ साढ़े तीन साल का था तो माँ चल बसी आधी रात में। कोठरी में नन्हा बालक बैजनाथ सो रहा था। उनके पिता ने घर के बाहर में उनकी माँ की लाश को निकालकर तुलसी चौरा के पास में चटाई पर रख दिया और चादर से ढक दिया। फिर, उनके पिता ने कोठरी में सोए हुए नन्हें बालक बैद्यनाथ को उठाया और कहा, ‘बबुआ’ तुम्हारी माँ मर गई। मरना क्या होता है, नन्हा बालक बैजनाथ उससे पहले नहीं समझता था। वह नींद से उठा था, पिता की बात सुनी और फिर वह सो गया।

उसके बाद पिता ने नन्हा बालक बैद्यनाथ और उसके छोटे भाई जो एक साल छः महीने का था, दोनों को लेकर ननिहाल गये। उनके पिता के दिमाग में यह बात थी कि नानी जो है इसकी, वह इन दोनों बच्चों को पाल देंगी। लेकिन, उनके नाना थे महा धूर्त आदमी। बहुत कूटनीतिक वृत्ति वाले। उनकी एक घेघा वाली बहन थी, उसकी एक लड़की थी। उन्होंने कहलवाया कि इससे शादी कर लो तो तुम्हारे दोनों बच्चों को पालन भी हो जायेगा। उनके पिता उस फंदा में कहाँ पड़नेवाले थे सो उन्होंने कहलवा दिया, नहीं करेंगें। तो नाना ने कहा, अपने दोनों बच्चों को ले जाओ, और नाना ने भगा दिया।

नन्हा बालक बैद्यनाथ की भले ही माँ मर गयी, लेकिन उनके पिता की रूचियाँ बहुत ‘विराट’ थीं। विराट इनवर्टेड कौमा में। उन्होंने शादी तो फिर नहीं की, लेकिन आठ-दस प्रेमिकाएँ रही होंगी उनकी.........। इसमें उनको आजादी महसूस होती थी। बैद्यनाथ को अपने पिताश्री की चार-पाँच प्रेमिकाओं के बारे में निकट से पता है। उनके पिताश्री तीन भाई थे। मँझली जो बैद्यनाथ की चाची थीं, वह उनके पिताश्री की भाभीश्री भी थी और प्रेमिका भी। उसको दो बार गर्भ ठहरा तो उनको महिलाओं ने घेरा कि ‘आपकी कृपा से हुआ है।’ वे साफ नकार गये ।तब महिलाओं ने मँझली चाची को घेरा, बुजुर्ग महिलाओं की पंचायत बैठी। यह बड़ा रोचक विषय होता है कि एक विधवा को गर्भ ठहर जाये और वह पाँचवाँ-छठा महीना में आ जाये। उनके पिताश्री का बड़ा स्वादिष्ट जीवन था। साउथ भागलपुर (बिहार) में उनके पिताश्री अपनी छोटी बहन के यहाँ करीब पन्द्रह-बीस साल लगातार रहते रहे। वहाँ, चूँकि मालिक के सार (साला) थे, तो जितनी मजदूरिनें थीं और रिश्तेदार थे,,,, सब मखौल करते। उनकी तरूणाई और जवानी वहाँ बीत गई :

“वही जोजा रही आँचल दबाए कुएँ के पास,

यौवन की बहारों को समेटे कि जिनकी छातियाँ हैं,

अभी उठती उभरती कच्ची वासयातियाँ हैं

और काठ की कठोता है जिनमें

अभी तक जिन पर खरखराते और रूखड़े

कुदारी और हसिया के ठेलेदार हाथ नहीं हैं पड़े।“

“बहुत दिनों के बाद

अब की मैंने जी-भर भोगे

गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ

इस भू-पर बहुत दिनों के बाद“

गरीबी की गोद में पले और बढ़े नागार्जुन आजीवन आर्थिक अभिशापों से अभिशप्त रहे। अपने गृह तरउनी गाँव, जिला दरभंगा (बिहार) में एक तरह से गुमनामी की जिन्दगी जीते रहे है। पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति के लिए उन्हें अपना जन्माना गाँव तरउनी और मिथिला-प्रदेश का परित्याग कर दूसरे-दूसरे प्रदेशों में समय गुजारना पड़ा। परंतु स्मृति में अपना गाँव तरउनी और मिथिला प्रदेश सदा बना रहा है। उनकी कविताओं में तरउनी और मिथिला के बिछुड़न की तपड़ के साथ ही नागार्जुन का जन्मभूमि और प्रकृति-प्रेम तथा उसके नैसर्गिक सुषमा का मर्मस्पर्शी और भावपूर्ण चित्र मूर्त हो उठा है। वे जहाँ कहीं भी रहे, तरउनी गाँव और मिथिला-प्रदेश की श्यामल अभराहयाँ उन्हें क्षण-क्षण भाव-विभोर करती रही हैं :

‘देस में रहेंगें, परदेस में रहेंगें,

चहे कौनो भेस में रहेंगें, रावरे कहावौंगे।’

नागार्जुन के ग्रामीण चित्रों में कृत्रिम रासायनिक रंगों का गहरापन तथा चटकीलापन नहीं, बल्कि नैसर्गिक सुषमा के रंगों का मोहक सहज पन है। मैथिल होकर भी उनमें सौंदर्य, प्रेम और भक्ति के महान शिल्पी और कवि विद्यापति के ‘दसिल बयना सब जन मीठा’ की मिठास नहीं, तीखी मिर्च की झाँस है।

वे आजीवन अभावों में पले। फिर भी, जिन्दगी की रपटीली राहों और पगडंडियों पर शान के साथ चले। वे हमेशा जिन्दादिल और चिरयुवा बने रहे। चाल में सादगी और विचार में ताजगी। एकदम आजाद पंछी। कहीं कोई याचना नहीं, किसी से कोई कामना नहीं। कबीर की भाँति मस्तमौला, एकदम फफ्कड़। संस्कृत के विद्वान होकर भी, वे पुरातनपंथी और ढोंगापंथी नहीं थे। ब्राह्मण होकर भी वे बौद्ध हुए। बौद्ध होकर भी बौद्धों के पाखण्ड की आलोचना की। विद्या के मंदिर में एकनिष्ठा और सर्वांग समर्पण की भावना से आराधना में भाव-विभोर कवि विद्यापति ने सरस्वती से भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य एवं माधुर्य की माँग की और नागार्जुन ने व्यंग्य और विद्रोह की माँग की। इसलिए उनमें कबीर का मुँहफटपन एवं बेबाकपन है। वे वंचित वर्गो के सुख-दुख के सच्चे साथी, सहभोक्ता और कुशल चितकार हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में वे कवि निराला के बाद व्यंग्य के सबसे बड़े कवि है। उनका व्यंग्य कबीर की तरह मारक और तिममिला देनेवाला होता है। उनमें क्रांतिकारी विचारक होने के कारण व्यवस्था के विरूद्ध लड़ने के लिए मुद्दा है और हाथ में कविता के रूप में मशाल भी। इसलिए लोग उन्हें अपना कवि मानते है।

यह बात सत्य है कि गद्य ज्यादा पढ़ा जाता है, लेकिन कविता लोगों को ज्यादा आकर्षित करती है। इस संबंध मे नागार्जुन के साथ में एक हैरत अंग्रेज वाकया घटित होता है। बिहार के सम्पूर्ण क्रांति के पुरोधा लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण जी समग्र क्रांति के दौरान चम्बल इलाके के दुर्दान्त डाकू जे0 पी0 से मिलने आये थे। किन्तु, वहाँ उपस्थित कवि नागार्जुन को देखकर चम्बल घाटी के दुर्दान्त डाकू नागार्जुन से भी बातें करने लगे थे। जे0 पी0 को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने उन डाकुओं से पूछा, ‘आप नागार्जुन को कैसे जानते हैं?’ इस पर डाकुओं ने कहा, ‘बाबा नागार्जुन को हमलोग सभी उनकी कविताओं से जानते हैं।’ नयी पीढ़ी को उनमें अपना विश्वनीय बाबा नजर आता है। जो साहित्य जनांदोलन से पैदा होता है, वही साहित्य लोगों को झकझोर पाता है। आज के साहित्यकारों को जनजीवन में जुड़ना चाहिए और जनसमस्याओं को उभारना चाहिए।

सातवीं पास करने के बाद बालक बैद्यनाथ अपने मामाओं के साथ में कलकत्ता शहर में दो साल तक रहे। उन्हीं दिनों उन्होंने कविताएँ लिखना शुरू कर दी थी। जवानी के दहलीज पर दस्तक देने लगे तो इसी बीच अठारह साल की उमर में उनकी शादी हो गयी थी। पटियाले वाले के राजगुरू नागार्जुन के रिश्ते मे ससुर लगते थे। उनकी पत्नी को पटियाले वाले ‘राजा’ ने ‘चाँख’ रखा है जैसे उनके पिताश्री ने अपनी मँझली भौजाई को चाँप् रखा। पटियाले वाले की छोटी रानी को कोई बाल-बच्चा नहीं हो रहा था तो खोजकर काशी से उनके इस सुसर को एक पंडित जी लाये थे, आते ही इन्होंने अपनी ओझायी छोटी रानी के ऊपर करनी प्रारंभ कर दी। आखिर वही हुआ, छोटी रानी के कई बार गर्भ ठहरा।

कलकत्ता से निकल भागे नागार्जुन और लाहौर में तीन महीने तक टिक पाये। पंजाब-पाकिस्तान बोर्डर पर साहित्य-सदन में वे रहते। वहाँ से वापस आने लगे तब स्वामीजी ने उनको दो हजार रूपये दिये थे। मद्रास में उनके रूपये की चोरी हो गयी थी। जब रूपये चोरी हो गयी थी तब उन्होंने कसम खा ली थी, ‘हम उत्तर भारत लौटकर नहीं जायेंगे या तो हम समुद्र में डूबकर मर जायेंगें।’ लेकिन, वे समुद्र में तो नहीं डूब पाये, लंका जरूर पहुँच गये। लंका में वे ढ़ाई साल रहे और वहीं वे बौद्ध भिक्षु बन गए। जब उनका नाम बदलने का समय आ गया तो उन्होंने कहा कि, ‘हम अपने मन से नाम रखेंगे।’ भारतीय इतिहास में तीन नागार्जुन हुए थे- एक तांत्रिक थे, दूसरे सिद्ध थे और तीसरे दार्शनिक थे। इन्होंने तीसरे दार्शनिक नागार्जुन को पसंद किया था तो उन्होंने अपना नाम- नागार्जुन रख लिया था। बैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन बन गये।

नागार्जुन की कविताएँ कलात्मक ही नहीं, क्लासिकी कविताएँ हैं। उनकी कविता के केन्द्र में प्रकृति और मनुष्य है। उनका शिल्प कलात्मक नहीं, खुरदुरा है। उनमें मीनाकारी, पच्चीकारी, किसी प्रकार की कारीगिरी एवं बनाव-श्रृंगार नहीं है, कोई अलंकरण नहीं है। फिर भी, उसमें अपनी माटी की सोंधी खुशबू है, गाँव-गँवई के सीधे-सपाटें आदमी का खाँटीपन है। नागार्जुन हिन्दी के प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि हैं। उनकी समस्त रचनाओं से बिहार की माटी महमट करने लगी है।


 संदर्भ :

8. नागार्जुन का रचना-संसार, लेखक-विजय बहादुर सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014.

9. नागार्जुन मेरे बाबूजी, लेखक-शोभाकान्त, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2011.

10. गाँव तब और अब, लेखक-डॉ0 कृष्ण बिहारी मिश्र, धर्मयुग, 6 जनवरी, 1980.

11. नागार्जुन, जीवन और साहित्य, लेखक-डॉ0 प्रकाश चन्द्र भट्ह.


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