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नशा व्यशन मनोवैज्ञानिक समस्या एवं समाधान

डॉ विनोद कुमार शर्मा

असिस्टेंट प्रोफेसर

(नैदानिक मनोवैज्ञानिक)

सचिव

विश्वविद्यालय तनाव प्रबंधन प्रकोष्ठ

स्नातकोत्तर मनोविज्ञान विभाग,

सिकामु विवि, दुमका।



नशा व्यशन मनोवैज्ञानिक समस्या एवं समाधान

नशा, नशा, नशा। युवा व किशोर क्यो नशा सेवन की प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होता जा रहा है? आख़िर ये नशा दवा के बदले किशोर व युवाओं की जिन्दगियां क्यो बर्बाद कर रही है? आखिर ऐसा क्या हो जा रहा है कि किशोर व युवा दोनों इसके गिरफ्त में आ जा रहे है? क्या ये सिलसिला नही रुकेगा? आदि ऐसे कई सवाल होंगे फिर भी, अखबारों की सुर्खियों से मिल रही खबरों से जहां इस बात का अंदाजा लगता है तो वही आसपास के सामाजिक गलियारों में मनचले किशोरों व युवाओं की नशा करते हरकतों को देखकर यह बात तय हो जाता है कि आज युवा व किशोर दोनों ही भटकाव के राह पर है। ऐसी बातों के पीछे जहाँ एक ओर पारिवारिक वातावरण का कमजोर व असुरक्षित होना नजर आता है तो वही गिरते सामाजिक मानक व त्रुटिपूर्ण समाजीकरण इस भटकाव की जननी बनती दिखती है।

किशोर उम्र जहाँ अपनी मनोशारीरिक हलचलों की संतूष्टि में जहां इधर-उधर दोस्त साथी बनाता है व जरूरतों को पूरी करने को सेतू बांधता है और जहां उत्तेजना को शांत करने व मंजिल देने के लिए नशा का शिकार होता है तो वही युवा मन अपनी जवानी को दिखलाने के लिए ,अपनी पुरुषार्थ साबित करने के लिए उस यथार्थ उत्तेजना का अनुभूति पाने के लिए देखादेखी नशा करने की प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होता है जो कुलमिलाकर नशा व्यसन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह कहना कि नशा गम को छुपाने या भुलाने, तनाव को कम करने , थकान दूर करने, का माध्यम है तो बात पुरानी हो चली है। युवाओं ने इसकी परिभाषा मर्दानगी साबित करने में कर दी है। और शायद अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस ,नपुंसकता , नालायकपन , निकम्मेपन , समाज विरोधी भावना आदि को छुपाने में कर दी है।

इन किशोर व युवाओं में नशा निम्न रूप से असर डालता है:


a. क्रेविंग व लस्ट:

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पहले देखादेखी या लेने की इच्छा होती है फिर धीरे-धीरे चाहत में ढल जाती है। फिर नशा की मात्रा बढ़ जाती है। कम समय मे अधिक बार लेने की प्रवृत्ति जागृत होती है।

b. टॉलरेंस:

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नशा को टॉलरेंट करने की क्षमता बढ़ती है व ज्यादा नशा करने की जिद्द करते है।

c. डिपेंडेंस :

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यह वह अवस्था है जहाँ बिना नशा किया रह ही नही सकता है। मन बेचैन व अशांत लगता है। चेहरा उदास। मानो कुछ खो गया हो। यहाँ न मिलने की स्थिति में कुछ भी अप्रत्याशित हो जाने की संभावना होती है।

दरअसल में इन लोगो मे नशा सोशल स्टेटस व ग्लैमरस जिंदगी की हिस्सा बनता जा रहा है जिसमे क्या लड़के क्या लड़कियां सभी अपने मर्जी की ज़िंदगी जीने को बेताब दिखते है। उस जीवन शैली को अपनाना चाहते है जो अपने भारतीय समाज का हिस्सा है ही नही। चरस, कोकीन, हेरोइन, एल एस डी, सेडेटिव, से लेकर ई- सिगरेट , निकोटिन, अल्कोहल आदि की उत्तेजना में खुद को तो निर्भर बना रहे है वही अन्य जिंदगियों को भी आदत लगा रहे है। जिंदगी उनकी भी बर्बाद कर रहे है। भविष्य तबाह कर रहे है।

फिल्मी दुनिया की ताजातरीन फिल्मस्टार शाहरुख खान के बेटे आर्यन के साथ अन्य तरुण युवाओं की बात हो या सुशांत सिंह राजपूत की घटना ये उदाहरण मात्र है लेकिन नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के नजर से देखे तो ऐसी घटनाएं घटने के बजाय बढ़ ही रही है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी (2017) की माने तो अबैध ड्रग से 7.5 लोग मौत की नींद सोए तो वही भारत मे 22 हजार लोग इस नशा सेवन से मरे। एक रिपोर्ट के मुताबिक (2018) 2.3 करोड़ लोग अफीम के आदि पाए गए तो 1.08 करोड़ लोग सेडेटिव यूजर मिले। जहाँ कभी ओपियम तो कभी हेरोइन के ज्यादा आंकड़े दिखे। हालिया नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेन्टर (एनडीडी टीसी) के अनुसार भारत में 2.6 करोड़ लोग अफ़ीम व हेरोइन का इस्तेमाल करते पाए गए तो 1.18 करोड़ लोग इंहलेंट व सेडेटिव व 8.5 लाख इंजेक्शन से नशा लेते पाए गए। जहां 4.6 लाख बच्चे व 18 लाख वयस्क को मेडिकल हेल्प की आवश्यकता है। जबकि वास्तविकता इससे कहीं ज्यादा होती है।

ऐसे नशा व्यसन के पीछे कारण जो भी हो पर इतना तो सच है कि युवाओं व किशोरों का जिंदगी जीने की ढंग बदल गया है। वो शॉट कट में सफलता की सीढ़ी चढ़ते हुए ग्लैमरस की जिंदगी जल्द से जल्द हासिल करना चाहता है। जहाँ उनके लिए ग्लैमरस का अर्थ पैसा, सेक्स व नशा है। यही कारण भी रईस बाप का बिगड़ैल औलाद दिल्ली की जेसिका पाल की तरह घटना घटाना चाहता है तो समाज मे ऐसे लोगो की नशा उतारने के लिए ह्यूमन ट्रैफिकिंग होती है। ऐसे में उसका भविष्य क्या होगा इस बात की सच्चाई से अनजान बन जिंदगी जीना चाहते है। साथ ही वो अपने को वैसी संस्कृति में साँचे में ढालना चाहता है जहाँ उसके लिए पैसा ही सबकुछ है। और उस पैसे के दमपर दुनिया का हर सुख मुट्ठी में कर लेने की स्वांग रचता है।

वर्त्तमान समय मे युवा हो या किशोर इस विज्ञान और तकनीकी पर न केवल अपनी निर्भरता व व्यस्तता दिखा रहे है बल्कि तकनीकी एडिक्शन का शिकार होकर सोशल मीडिया की दिखावे की हाय-फाय जिंदगी जीने को भी आदि हो रहे है। यूँ कहे ग्लैमरस जिंदगी जीने को शौकीन हो रहे है। बेताब चल रहे है।

बच्चों को गुणवत्ता के नाम मिलने वाली अंग्रेजी शिक्षा ने भी न केवल जेनरेशन गैप को बढ़ाया है, नव उदारवादी दुनिया मे एकल जिंदगी जीने की अभिप्रेरित किया है बल्कि कम उम्र में इतना अधिक बेहतर शिक्षा के नाम पर मोटी कमाई कर लेने के साथ-साथ ज्ञान भर देने का काम किया है कि वो संस्कारों से हट अलग एकल जिंदगी जीने में ही अपनी समझदारी साबित करते है। जहाँ एक जिद्द की जिंदगी में हर व्यवहार उसकी मनमर्जी का होता हो। जहाँ उन गैर सामाजिक व्यवहारों पर से अभिभावकों का नियंत्रण हटा नही कि अचेतन मन अपनी विसंगतियां का कमाल कर दिखाती है। ऐसे में किशोर व युवाओं को मनमर्जी करने का राह आसान कर देती है।

समाज भले ही इन किशोरों व तरुण युवाओं को भले बच्चा समझे मगर ये अब अपने को कभी बच्चा समझने देना नही चाहते है। ये बच्चे अपने को काबिल, होशियार व परिपक्व मानते है तभी तो चेहरे पर दाढ़ी भी नही उगती कि शान से सिगरेट की धुआँ छोड़ते है, गुटखा , तम्बाकू ,भांग, आदि खाते है और शाम ढलते ही आवारा सड़कों पर दोस्तों के साथ नशा का सेवन करते है । चेयर्स करते है। दोस्तो के साथ नशे का इंजेक्शन लेते है। कफ सिरप, डेनड्राइट, सुलेशन, आदि लेते है। और थोड़ा नशा चढ़ा की नही मन कामुक हो दुष्कर्म की बाट जोहता है या फिर योजनानुसार अपराध को अंजाम देते है। यह हर सभ्य शहर की कथा कहानी है।


नशा का मनोवैज्ञानिक उपचार:

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प्रथमतः रोगी का रोग वृतांत व ड्रग हिस्ट्री को लिया जाता है यानि मापन कार्य किया जाता है। फिर योजनाबद्ध तरीके से उपचार किया जाता है:

1. रोगी को डी-एडिक्शन वार्ड में रखकर साइकियाट्रिक मेडिसिन विथड्रावल लक्षणो को कम करने के लिए।

2. परामर्श,

3. संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा : जिसमे उसके नेगेटिव बिलीफ को खत्म किया जाता है तो अवर्सन थेरेपी द्वारा नशा के प्रति अरुचि उत्पन्न करना मुख्य उद्देश्य होता है दिया जाता है।

4. हाफवे होम में रिहैबिलिटेशन का पूरा प्रयास किया जाता है।

5. फॉलो उप कॉउंसलिंग।

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