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प्रवासी भोजपुरी समुदाय में जीवित भिखारी ठाकुर के लोकनाट्य

चन्द्रशेखर पाण्डेय

शोधार्थी, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग,

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर।


डॉ0 पवन कुमार सिंह

एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, एस0 एस0 भी0 महाविद्यालय

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर।



प्रवासी भोजपुरी समुदाय में जीवित भिखारी ठाकुर के लोकनाट्य


भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 ई0 को हुआ। बहुत कम ऐसे रचनाकार होते हैं, जो जीवित रहते मिथ बन जाते हैं। भिखारी ठाकुर एक ऐसे ही रचनाकार हैं। अपने जीवनकाल में ही वे भोजपुरी समाज के मिथ बन चुके थे। यद्यपि उनकी मृत्यु (10 जुलाई 1971) के बाद जितना फैलाव उनको और उनकी रचनाशीलता को मिलना चाहिए, उतना नहीं मिल सका। भोजपुरी समाज और रंगकर्मियों ने तो उन्हें सामाजिक जीवन की मुख्य धारा में ससम्मान जीवित रखा, पर हिन्दी की दुनिया ने उन्हें वह सम्मान और महत्व नहीं दिया। राहुल सांस्कृत्यायन ने जरूर उन पर गंभीरतापूर्वक लिखा।

भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण का संदेशवाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोकगीत तथा भजन कीर्तन के अन्यतम साधक थे। वे बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यो के लिए प्रसिद्ध हैं। वे एक महान लोक कलाकार थे। जिन्हें भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है।

वे एक ही साथ, कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक कलाकार, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर स्वमातृभाषा भोजपुरी है। उनके पूर्वज मूल रूप से भोजपुर क्षेत्र के रहने वाले थे। जो क्षेत्र भोजपुरी का उद्गम स्थान माना जाता है। डॉ0 भोलानाथ तिवारी और डॉ0 उदय नारायण तिवारी भी भोजपुरी का उद्गम स्थान भोजपुर (पुराना भोजपुर) को ही मानते हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने भोजपुरी को छः भागों में बाँटा है। जिसमें बिहार में पश्चिमी भाग और उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र भोजपुरी भाषा का क्षेत्र माना जाता है।

भोजपुरी भाषा को बोलने वाले पूरे विश्व में फैले हुए हैं। आज भोजपुरी की मिठास पूरे विश्व में महसूस की जा रही है। इसका प्रसार क्षेत्र सबसे बड़ा है। यह बोली से बढ़कर भाषा के क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है। सम्पूर्ण भारत में कहीं भी जाइए, तीन लोगों को जरूर पाइएगा- 1. मारवाड़ी 2. पंजाबी और तीसरा भोजपुरिया। इसका कारण जो भी रहा हो। मारवाड़ी व्यापार में आगे हैं। पंजाबी मेहनत करने वाले माने जाते हैं। भोजपुरी लोग पुराने समय से ही उपेक्षित हैं और आज भी गरीबी के शिकार हैं। इसमें उच्चवर्ग के पास जमीन, धन तो है लेकिन मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के पास आज मेहनत-मजदूरी के आलावे कोई उपाय नहीं है।

एक समय था जब भोजपुरिया कहा जाने वाले समाज में जो संस्कार पहले था, वह आज भी कहीं न कहीं खून में जरूर है। उस जमाने में लोग घर-परिवार, समाज के सभी बड़े-छोटे का ध्यान रखते थे। परिवार बढ़ता गया, रोजगार था नहीं संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं था। उसी समय गिरमिटिया मजदूर जहाजों में भर-भरकर विदेश ले जाए जाते थे। वहाँ से लौटना भी लोगों का नहीं हो सका। जो जहाँ गए, वहीं के होकर रह गए। अपनी भाषा को बनाए रहे। चाहे देश के कोने-कोने में हो या सात समुद्र पार, मॉरिशस, यूनान, फीजी, ट्रिनीडाड, फ्रांस, अमेरिका हर जगह हैं भोजपुर निवासी।

मनोरंजन में भोजपुरी लोग नाच-गाना, नाटक, नौटंकी, रामलीला, भजन, लोकगीत तथा फिल्म देखना पसंद करते हैं। कोई भी मेहनतकश आदमी अपने मनोरंजन के लिए कुछ-न-कुछ गीत, संगीत, नाटक इत्यादि का सहारा लेता है। आज देश के कोने-कोने में चाहे कोई भी क्षेत्र हो भोजपुरी भाषा-भाषी लोग मिलेंगे ही। चाहे कल-कारखाना हो या सेना का जवान हो, छोटे से बड़ा काम करने वाला जवान भोजपुरिया होगा। इस मामले में पंजाबी लोगों के बाद भोजपुर के लोग ही माने जाते हैं।

भिखारी ठाकुर के गीतों में कलकत्ता का जिक्र बहुत होता है। भिखारी ठाकुर की तुलना वर्ड्सवर्थ से भी की गई है। लिरिकल बैलेड्स में चर्चा है कि “ऐसी परिस्थिति या भावना जिसके साथ दुख के अधिकांश जुड़े रहते हैं, उसकी अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य में अधिक प्रभावकारी होता है। “भिखारी ठाकुर भी वही किए हैं। ठाकुर जी की रचना में विदुशिया, विधवा-विलाप, बेटी-वियोग, गबर घिचोर आदि किताबों का गीत किसी न किसी व्यथा से लिपटा है। इस बात का लोगों पर कितना एतबार हुआ कहना मुश्लिक है, लेकिन लोग निरूत्तर हो गए और शायद जिज्ञासा शांत हो गई। तब अनपढ़ लोग लोक साहित्य को जानने वाले और उन सभी की गरिमा मानने वाले लोग ठाकुर जी के प्रति आकर्षित हुए और नए सिरे से उनकी कृति के मुद्दों और मूल्य को समझने की कोशिश किए थे।

शहर कलकत्ता से ठाकुर जी के गीतों का नाता था। भिखारी ठाकुर जी के गीतों में कलकत्ता का जिक्र वहाँ के लोगों के लिए एक आकर्षण का केन्द्र था। उस समय की बात है जब कलकत्ता में कोहिनूर कम्पनी द्वारा विदेशिया की रिकार्डिंग की गई थी। कम-से-कम कलकत्ता और आसपास के लोग जो भोजपुरी भाषा-भाषी हिन्दी या अहिन्दी भाषा-भाषी लोग यह जान चुके थे कि भिखारी ठाकुर भी एक सख्यियत है।

उनके निम्नलिखित गीत आज भी लोगों के मुँह में रहते हैं-

1. “पिया गइलन कलकत्तवा, तूरिदिहलन पति पतनी के नातावा“- सुनकर लोग हुलसने लगते हैं। इस प्रसंग के क्रम में यह बात स्मरणीय है कि पेट और पैसा के लिए रेल से जुड़ा कलकत्ता और जहाज से जुड़ा वर्मा (आधुनिक म्यांमार) में बिलखती पत्नी को छोड़ कर लोग चले जाते थे।

2. भोजपुरी गीत- “रेलवा ना बैरी, जहजवा ना बैरी पइसवा भइले बेरी हो रामां।

3. महेन्द्र शास्त्री भी कलकत्ता के विषय में कहते हैं- “जिसे कहीं शरण नहीं, उसका भी स्वागत है, इस महासागर में सबको खपना है।“ काम हैं हजारों प्रकार के।

देर तक किसी को नहीं पड़ेगा जपना। झरिया से नई हारी, हावड़ा सियालदह, देह ना चुराओं तो सुख नहीं सपना, दिल्ली है हकिमों की, बम्बई मालिकों की, कलकत्ता मजदूरी का अपना।“

मजदूर श्रेणी के लोग नौकरी के अभाव से तंग आकर कलकत्ता की तरफ भागे। उस समय कलकत्ता आकर्षण का केन्द्र था कि नवविवाहिता औरत पति की कमाई से अपना खाली बक्सा भरने के लिए कलकत्ते की तरफ देखते हुए गाती थी-“मारव झुलनिया के धक्का, बलमु कलकत्ता ले जइहे हो।“ उस समय कलकत्ता संबंधी भिखारी ठाकुर के सभी गीत युग परम्परा की देन थे। उस समय से लेकर आज भी लोग गुनगुणाते हैं-

1. ‘मति जा हो पुरूववा पिया मोर, पुरूब देश में टोना बहुतवा, पानी बहुत कमजोर।

2. करके गवनवां भवनवां में छोड़िके अपने पकड़लन पुरूबवा बलमुआ।

3. लागि विदेशी में सुरतियां, घर में रोबत बारी, बिआही औरतिया।

उस समय के सभी गीत सभी लोगों को खूब रूचे, मालूम होता था कि भोजपुरिया क्षेत्र की छवि उभारने वाला कोई है। खेत-खलिहान से जिन्दगी शुरू करने वाला, मड़ई और मचान पर जिन्दगी काटने वाला कलकत्ता के कल-कारखाना में हाड़ तोड़ने वाला, मजबूरी में तड़पती, कलपती पत्नी से मुँह मोड़ने वाले, आदमी के राग-विराग के ‘कालजयी चितेरा’ भिखारी ठाकुर के गीत धर्मी नाटक, नाच में अधिक पाए जाते थे। इनकी कृतियों में अगड़ी-पिछड़ी जाति बंदी से चिन्हित और असंस्कृत भोजपुरिया की धूमिल छवि निखारने के लिए उस युग में एक बड़ी अच्छी जमीन दिए थे भिखारी बाबा।

आज भी उनके लोक नाट्य, जगह-जगह मनोरंजन का काम करते हैं। ‘जट-जाटीन’ ‘डोमकच’ में डोम डोमिन और ‘धोबी-धोबिन’ गीत नाच के माध्यम से दलित विमर्श के संदर्भ में बड़ी बारीकी से उभारा गया है।

आज भोजपुरी भारत के बाहर त्रिनिदाद, फिजी, गुआना, मारिशस, नेपाल आदि देश में अपने मान मर्यादा का झंडा लहरा रहा है। आज से डेढ़ सौ-दो सौ वर्षो पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी अंचल से वहाँ के भोजपुरिया के पूर्वज (पुरखा-पुरनियाँ) अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी (‘छान-छप्पर’) छोड़ कर फटेहाल, फक्कड़ के रूप में सात समुद्र पर करके वहाँ की मिट्टी में अपना डेरा डाले। कहा जाता है कि वे लोग अपना दो विरासत (धरोहर) पहली अपनी मातृभाषा भोजपुरी और दूसरी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस, को लोग अपने कलेजे से लगा कर रखे हुए हैं। अंग्रेज प्रशासक और भोजपुरी भाषा के तरफदार जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन भोजपुरी को ‘बहादुर लोग’ की भाषा कहे हैं। भोजपुरी भाषा को बोलने वाले लोग भोजपुर से बाहर बड़ी संस्था में पाए जाते हैं।

भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार के पश्चिमी भाग तथा उत्तरी झारखण्ड में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यावहारिक रूप से भोजपुरी हिन्दी की उपभाषा या बोली है। भोजपुरी समझने वालों का विस्तार विश्व के महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाए गए मजदूर हैं। इनके सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख हैं। भारत की जनगणना (2001) के आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगलग चार करोड़ है। हलाँकि द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में यह बताया गया है कि पूरे विश्व में भोजपुरी के वक्ताओं की संख्या 16 करोड़ है। जिसमें बिहार में 8 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 7 करोड़ तथा शेष विश्व में 1 करोड़ है। उत्तर अमेरिकी भोजपुरी संगठन के अनुसार वक्ताओं की संख्या 18 करोड़ है।

भोजपुरी रत्न भिखारी ठाकुर सामाजिक चेतना के प्रबल प्रहरी के रूप मे खड़े दिखाई देते हैं। भोजपुरी साहित्य और समाज की जो सेवा उन्होंने की, उसे ध्यान में रखते हुए महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जी ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ और अनगढ़ हीरा कहा । जगदीश चन्द्र माथुर उन्हें भरत मुनि की परम्परा का लोक नाटककार मानते हैं। लोकभाषा रचने के कारण तुलसीदास के बाद भिखारी ठाकुर को ही लोकप्रियता मिली। तुलसी बाबा अवधी में, भिखारी बाबा भोजपुरी में लोकप्रिय हुए। अंग्रेजों के राज्यकाल में भिखारी ठाकुर को राय साहब की उपाधि से विभूषित किया गया था। स्वतंत्र भारत में उन्हें सदा सम्मानित किया गया।

“नाटकों में ही नहीं कविताओं में भी भिखारी ठाकुर का वही तेवर है। सीधे सपाट लेकिन असरदार ढं़ग से अपनी बात कहने की तमीज! बिम्बों और प्रतीकों के जंगल में खोना उन्हें पसंद नहीं। लोक संवेदना की गहरी पकड़ भी उनके पास। नाटकों में उन्होंने कविताओं का प्रयोग किया। कवि होने का उनके नाटकों को वैसा ही लाभ मिला। जैसा शेक्सपीयर, भारतेन्दु और जयशंकर प्रसाद को मिला था।“

भिखारी ठाकुर एक व्यक्ति न होकर एक विचार बन गए हैं। भारत में या भारत से बाहर जो भी लोग बसे हैं, भिखारी ठाकुर की परम्परा को जीवित रखे हुए हैं। लोक नाटक का प्रभाव अब टेलीविजन पर भी दिखता है। कई-कई चैनल भोजपुरी के हैं। गायकों की एक टीम अपनी हुनर दिखा रही है। भिखारी ठाकुर के लोक नाटकों पर आज भी लोग देश-विदेश में रिसर्च कर रहे हैं। उनके नाम पर आज भी जगह-जगह लोक नाटकों का मंचन होता है। भिखारी ठाकुर का प्रभाव समाप्त होने वाला नहीं है। आने वाले समय मे भी भिखारी ठाकुर चाँद-तारे के समान चमकते रहेंगे भोजपुरी साहित्याकार में।


 संदर्भ :

1. भिखारी ठाकुर रचनावली।

2. भिखारी ठाकुर जीवन और सृजन- अशोक सिन्हा।

3. विकीपिडिया।

4. लोक कलाकार भिखारी ठाकुर इयादन के खोह में-लेखक डी0 एस0 राय, पृ0-12-13.

5. लोक कलाकार भिखारी ठाकुर : परमानंद दोषी, पृ0-10-11.

6. भाषा विज्ञान : भोला नाथ तिवारी।

7. हिन्दी साहित्य का इतिहास : आचार्य राम चन्द्र शुक्ल।


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