- rashmipatrika
वर्षा कुमारी की कवितायेँ
वर्षा कुमारी
सहायक प्रधायापक, अंग्रेज़ी विभाग
संताल परगना कॉलेज, दुमका
नदी और मैं
बैठी थी मैं डूबी अपनी ही उलझनों में
डूबने के लिए नदी भी सामने ही थी
उतरकर धीरे-धीरे गहराई में समाना चाहती थी नदी के
तभी कोई लाचार सा हाथ मेरे पैरो को महसूस हुआ
मेरे जैसा ही कोई मुझे महसूस हुआ
रो रो कर कहने लगी वो
मैं भी सुनने लगी ..
हत्या की साजिश हो रही है मेरी |
फैक्ट्रियों से जहर डाल रहे
रात-दिन इसमें मल-मूत्र करके दम घोंट रहे मेरा |
मै तो माँ बनकर जी रही थी
निछावर कर दी थी मैंने तो अपनी निश्छल देह सभ्यता के विकास के लिए
मस्ती में चलते जहाज - नाव , विकास की सीढियाँ चढ़ता रहा मनुष्य
और अब अँधा हो गया , करने लगा छेड़खानी अपनी हीं माँ से
अपनी ऐय्याशियों के थर्मोकोल और प्लास्टिक डालने लगा मुझमें
माल्य और निर्माल्य दोनों से हीं मेरी काया को कुरूप किया
अब मैं भी परेशान हूँ अपनी ही कुरूपता और दुर्गन्ध से
उलझन में हूँ , क्या करूँ सोचती हूँ ..
सोचा मैंने सुकून कहाँ नदी को भी
इसकी गहराइयाँ हीं जिन्दा नहीं
मै अब क्या करूँ
देने लगी नदी को सांत्वना........