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शोध-कार्य के स्त्रोतों के रूप में साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्त्रोतों की प्रासंगिकता
डॉ0 कमल शिवकान्त हरि
सहायक प्राध्यापक
इतिहास विभाग, संताल परगना महाविद्यालय, दुमका।
शोध-कार्य के स्त्रोतों के रूप में साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्त्रोतों की प्रासंगिकता
साहित्यिक स्रोत की प्रासंगिकता व प्रमाणिकता :
इतिहास लेखन में स्त्रोत के रूप में दो चीजें महत्वपूर्ण होती है- प्रथम तो अभिलेखन व दूसरे साहित्यिक स्त्रोत। अभिलेखीय स्त्रोतों में जहाँ स्मारक, स्तंभ, स्तूप, सिक्के व मुद्राएँ आदि वास्तविक उत्खनित व पुरातत्विक पूरा साक्ष्यों को शामिल किया जाता है। वही साहित्यिक स्त्रोतों में विद्वानों द्वारा रचित लेखन सामग्री चाहे वह धार्मिक हो या धर्मेत्तर विदेशियों के विवरण शामिल किए जाते हो।
इतिहास लेखन करते समय हमें प्रमाणिक जानकारी की आवश्यकता होती है, जिसके लिए हमें प्रमाणों की आवश्यकता होती है। इस प्रकार प्रमाणों को हम समकालीन साहित्य में पाते हैं और उन साहित्यिक रचनाओं के आधार पर इतिहास लेखन किया जाता है। इतिहास लेखन करते समय साहित्य को प्रमाणों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्यों से हम अभिलेखीय स्त्रोतों से प्राप्त सामग्री को जाँच सकते हैं तथा और भी ज्यादा प्रमाणिक व सत्य किया जा सकता है।
साहित्य की इतिहास लेखन में प्रासंगिकता को हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में बहुत अच्छे ढंग से समझा जा सकता है। हड़प्पा सभ्यता की खुदाई में हमें बड़ी तादाद में पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं और उनसे अनेक निष्कर्ष भी निकाले जाता हैं, किंतु वे इतने स्पष्ट नहीं हैं जितने कि वैदिक कालीन। इन सभी के पीछे मूल कारण है हड़प्पा सभ्यता की अपठित लिपि के अभाव में इसकी साहित्यिक सामग्री का उपयोग न हो पाना।
अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साहित्यक साक्ष्य अभिलेखीय साक्ष्य को कहाँ तक प्रमाणिक व सत्य ठहराते हैं व इसका इतिहास लेखन में क्या योगदान है। साहित्यिक सामग्री के अभाव में ही हम हड़प्पा सभ्यता की धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि परंपराओं व व्यवस्थाओं के संबंध में कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते।
अतएव साहित्यिक स्त्रोतों से इतिहास लेखन में निश्चितता की स्थिति को बल मिलता है। साहित्यिक स्त्रोतों की तुलना में अभिलेखीय स्त्रोतों को ज्यादा अच्छे ढंग से पेश किया जा सकता है और उसके संदर्भ में ज्यादा जानकारी रखी जा सकती है। किंतु इतिहास लेखन में साहित्यिक स्त्रोतों के प्रयोग से कई हानियाँ भी है, जैसे :
1. आसानी से मनोनुकूल परिवर्त्तन :
ऋग्वेद के 2 से 7वें मंडल को परिवार मंडल तथा शेष को क्षेपक या परिशिष्ट मंडल कहा जाता है। अब इतिहासकार इतिहास रचते समय हो सकता है, केवल परिवार मंडल का ही प्रयोग करें या फिर दूसरा इतिहासकार क्षेपक मंडल के आधार पर ऋग्वेद का वर्णन करें। ऐसा करने से ऋग्वेद की मूल आत्मा (ज्ीमउम) में परिवर्त्तन संभव है और हमारे निष्कर्षों में भिन्नता आना स्वभाविक है।
2 अभिलेखीय सामग्री को हम परिवर्तित नहीं कर सकते। वह जैसे पहले थे, आज भी इसी अवस्था में मिलेगी, किंतु साहित्यिक सामग्री में तीव्र गति से परिवर्त्तन संभव है क्योंकि प्रत्येक इतिहासकार का दृष्टिकोण भिन्न होता है। अतः वह साहित्यिक स्त्रोतों को बदलता रहता है, जिससे इसकी महत्ता कम हो जाती है।
3 साहित्यिक स्त्रोत की एक सीमा यह भी है कि साहित्यिक सामग्री में निष्पक्षता का अभाव होता है, जैसे- बाबरनामा, अकबरनामा, आलमगीरनामा, खजाइ-नुल-फतह आदि। इन सभी में अपने शासकों का प्रशंसात्मक वर्णन किया गया है और उनकी किसी भी बुराई की ओर इंगित नहीं किया है, उनकी सभी कमियों को दबा दिया गया।
4 विदेशी यात्रियों के वृत्तांत में प्रमाणिकता की कमी :
चूँकि विदेशी यात्री एक भिन्न राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व रीति-रिवाजों वाले क्षेत्रों से आए। फलतः उनकी सोच यहाँ की सोच से भिन्न थी। उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन अपने ढंग से किया। जिनमें कई खामियाँ रह गई। उदाहरण स्वरूप हम मेगास्थनीज की इंडिका, जिसमें भारतीय समाज व्यवस्था को पूरी तरह समझे बगैर अनेक गलत तथ्य प्रस्तुत कर दिए हैं- जैसे भारत में जनजातियाँ निवास करती है। अतः कुछ कमियों के बावजूद भी साहित्य की प्रमाणिकता को कम नहीं आँका जा सकता।
अतीत के पुनर्निर्माण में अभिलेखीय साक्ष्यों का उपयोगिता :
अभिलेखीय साक्ष्य के अंतर्गत व सामग्री आती है जो हमें साहित्यिक ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में लिखी हुई प्राप्त होती है। अभिलेखीय साक्ष्य के मोटे तौर पर ये उपभेद किए जा सकते हैं-
1. गुहा लेख।
2. शिला-लेख।
3. स्तंभ-लेख।
4. ताम्र-पत्रों पर अंकित लेख।
इन लेखों में कुछ राज-शासन अथवा कुछ दान-लेख है तथा कुछ प्रशस्तियाँ हैं। इस प्रकार के लेखों के विषय में बड़ी विविधता मिलती है। इतिहास के साक्ष्य के रूप में इनका महत्व इसलिए और अधिक है, क्योंकि यह समसामयिक साक्ष्य होते हैं।
प्राचीन भारत के कई लेखों से न केवल विवि राजनीतिक महत्व की समस्याओं पर प्रकाश डालता है अपितु तत्कालीन साहित्य, संस्कृति एवं जन जीवन के अन्य पक्षों पर भी इनसे महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है। इन लेखों में शासक के नाम, शासन वंश, तिथि और समसामयिक घटनाओं का विवरण मिला ह।ै कभी-कभी इन लेखों से साहित्यिक ग्रंथों द्वारा पहले से प्रधान सूचनाओं का समर्थन होता है, जिससे इतिहासकार इस विषय पर और अधिक निश्चित मत बना सकता है। उदाहरण के लिए मौर्यकालीन प्रशासन अथवा जन-जीवन के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मेगास्थनीज की इंडिका से जो जानकारी मिलती है अशोक के अभिलेखों में प्रायः उसका समर्थन मिलता है और इस प्रकार ऐतिहासिक सूचना और भी अधिक प्रमाणिक बन जाती है। हर्ष के विषय में बाणभट्ट के हर्षचरित से जो सूचनाएँ मिलती है हर्ष के लेखों में उसका समर्थन मिलता है। इसी प्रकार हेलियोडोरस के बेसनगर अभिलेख से यह महत्वपूर्ण सूचना मिलती है कि इस लेख के समय तक भागवत धर्म इतना लोकप्रिय हो चला था कि विदेशी लोग भी इसे स्वीकार करने लगे।
अशोक के अभिलेख संख्या में इतने अधिक हैं तथा उनसे मिलने वाली सूचना इतनी निशद एवं महत्व की है कि उन्हें एक साहित्य का नाम दिया जा सकता है। भारतीय इतिहास के इस महत्वपूर्ण शासक और मौर्य वंश के विषय में सामान्य रूप से जो सूचनाएँ इनके द्वारा मिलती है उनके बिना इस संबंध में हमारी जानकारी सर्वथा अधूरी है।
इसी प्रकार समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति के बिना हम इस महत्वपूर्ण शासक के विषय में कुछ भी नहीं जान पाते। यही बात हम कलिंग के शासक खारवेल के विषय में कर सकते हैं, जिसके बारे में सूचना का आधार हाथी गुफा अभिलेख है।
कभी-कभी लेखों में लेख जारी करने वाले शासक के नाम के अतिरिक्त उसकी वंशावली भी दी हुई रहती है। उदाहरण के लिए, रुद्र दामन के लेख से यह ज्ञात होता है कि वह जय दामन का पुत्र एवं चष्टन का पौत्र था। वंशावली की यह परंपरा गुफा लेखों में अपनी चरम पर दिखाई देती है। वंशावली की सहायता से इतिहासकारों को उत्तराधिकार क्रम समझने में बड़ी सहायता मिलती है कि वे प्रभुत्ता-संपन्न और स्वतंत्र शासक थे अथवा अन्य किसी शक्तिशाली शासक के सामन्त अथवा अधीनस्थ के रूप में राज्य करते थे। इन लेखों में शासन व्यवस्था के ऊपर भी महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इनमें पदाधिकारियों के नाम और उनके कार्य व्यापारियों का विवरण भी प्राप्त होता है। साम्राज्य के विविध प्रशासनिक इकाइयों के संबंध में भी इनसे सूचना मिलती है।
प्राचीन भारत के कुछ लेख साहित्यिक महत्व के भी मिलते हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख का उपयोग विद्वानों ने संस्कृत भाषा के विकास क्रम को समझने में किया है। धार तथा अजमेर के चट्टानों पर नाटक लिखे हुए मिले हैं। पदुकोटट्ा के अंतर्गत “कुदुमियामल“ नामक स्थान से प्राप्त लेख में संगीत के नियम बताए गए हैं।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अभिलेखीय साक्ष्यों के बिना अतीत के स्त्रोतों का पुनर्निर्माण पुर्णतया शुद्ध रूप से करना अत्यंत कठिन है।