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संथाल इतिहास एवं संस्कृति

असुन्ता हेम्ब्रम

शोधा छात्रा

विश्वविद्यालय इतिहास विभाग

तिलकामाँझी भागलपुर वि०वि०

भागलपुर।


संथाल इतिहास एवं संस्कृति


आदि काल से ही संथाल अपने इतिहास को लोक गीतों एवं कहानियों के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करते आये हैं। इसमें बड़े बूढ़े एवं बुजुर्गां का विशेष योगदान रहा है। आदि काल से ही संथालों में शिक्षा के अभाव के कारण वे अपने इतिहास को लिपिबद्ध करने में असमर्थ रहे हैं। संथालों के विषय में लिखित साक्ष्य अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् मिलने आरंभ होते है।

जनसंख्या की दृष्टि से संथाल झारखण्ड की सबसे बड़ी जनजाति है। यह जनजाति झारखण्ड के लगभग सभी जिलों में पाई जाती है, लेकिन इसका मुख्य निवास स्थान संथाल परगना है जहाँ संथालों की सबसे अधिक जनसंख्या पाई जाती है। संथाल परगना जहाँ संथाल जनजाति संकेन्द्रित है; इसका गठन 1855 ई. में अधिनियम 37 के अन्तर्गत हुआ। संथाल परगना प्रमंडल का क्षेत्रफल 5,470 वर्गमील है। इसकी सर्वाधिक लम्बाई उत्तर-पूर्वी गंगा से दक्षिण-पश्चिम में बराकर तक 120 मील है। पश्चिम से पूर्व तक इसकी चौड़ाई भी लगभग इतनी ही है। एक पृथक् प्रशासनिक इकाई के रूप में संथाल परगना का गठन उस विपुल संथाल विद्रोह का प्र्रत्यक्ष परिणाम था जो 1855 ई. में घटित हुआ था। इससे पूर्व संथाल परगना तथा इसके समीपवर्ती इलाके को, जिनमें उस समय हजारीबाग, मुंगेर तथा भागलपुर के जिले सम्मिलित थे, जिसे ‘जंगली इलाका’ या जंगल तराई कहा जाता था। 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी को दिवानी मिलने के बाद इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।1 तभी से संथालों के विषय में लिखित साक्ष्य प्राप्त होने लगे।

अंग्रेजों के अधिकार में आने से पहले संथाल परगना के क्षेत्रों एवं संथालों का ऐतिहासिक वर्णन करना कठिन है क्योंकि लिखित प्रामाणिक, साक्ष्यों के अभाव में मुगल शासन काल तक का इतिहास अस्पष्ट है। यहाँ पर उपलब्ध प्रस्तर खण्ड एवं भगनावशेष ही यहाँ की प्राचीन सभ्यता के द्योतक हैं। अभिलेख के अनुसार मालेर सौरिया पहाड़िया यहाँ के प्राचीनतम जनजातियों में गिने जाते थे। मेगस्थनीज ने उन्हें 302 ई.पू. ‘मल्ली’ के नाम से सम्बोधित किया हैं। 645 ई. में ह्वेनसांग ने भी इसकी चर्चा अपने विवरणों में किया है। संथाल परगना के कुछ भाग एवं राजमहल के आस-पास के क्षेत्रों का विशेष सामरिक एवं आर्थिक महत्व था, जिसके कारण यूनानी, इतिहासकारों, पुर्तगाली लेखकों एवं यूरोपीयन कम्पनियों का ध्यान इस क्षेत्र की ओर आकृष्ट हुआ। समय-समय पर इस क्षेत्र में अधिकार करने का प्रयास शासकों द्वारा किए जाते रहे हैं और अंततः 1580-81 ई. में एकीकृत बिहार-झारखण्ड पर मुगल शासकों का अधिपत्य स्थापित हुआ तथा 1592 में बंगाल की राजधानी राजमहल को बनाया गया।2 आगे चलकर 1769 में उधवा नाला में मीरकासिम अली का मेजर एडम्स से परास्त होने के बाद अंग्रेजों का संथाल परगना से सीधा संपर्क स्थापित हो गया।

आदिकालीन सभ्यता के धरोहर संथाल जनजाति के पास अपनी पृथक पहचान, सामाजिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक पराम्पराओं की विरासत होने के बावजूद उनके पास अपनी परम्पराओं का कोई लिखित इतिहास नहीं है। उनके परम्पराओं का लिखित ‘‘वर्णन मारे हापड़ाम कोरियाक काथा’’ (पूर्वजों का इतिहास) से आरंभ होता है। यह मौखिक स्रोतों पर आधारित संथालों की सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं का वर्णन है। यद्यपि संथाल आज जिस क्षेत्र में स्थाई तौर पर बस गए हैं वहाँ उनका स्थानीय रूपांतरण हुआ है। संथाल अपनी उत्पत्ति से संबंधित अपनी अवधारणा तथा उन विभिन्न स्थानों, जिनसे गुजरते हुए वे अपने वर्तमान स्थान पर पहुंचे हैं। उसके बारे में उनका अनुभव जिसकी झलक हमें उनके लोक गीतों, कहानियों, कविताओं आदि में मिलती है। अपनी उत्पत्ति के संबंध में उनकी मान्यता है कि मादा हंसनी के दो अंडों से ‘पीलचूहाड़ाम’ और ‘पीलचू बुढ़ी’ पैदा हुए जो संथालों के दो आदि मानव थे। ये दोनों हिहीड़ी-पिपीड़ी में पले बढ़े। हिहीड़ी पिपीड़ी संथालों का पहला निवास स्थान था जिसकी पहचान के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद है।

हिहीड़ी-पिपीड़ी एक ऐसा नाम है जिसका सम्बंध स्क्रेफसर्ड ने हीर-उत्पति से स्थापित किया है और इसकी पहचान हजारीबाग जिले के आहूरी परगना से की गई है।3

संथालों के इतिहास की जानकारी उनके इस लोक गीत से प्राप्त होता है-

‘‘हिहीड़ी-पिपीड़ी रे बोन जानामलेन,

खोजकामान रे बोन खोजलेन

हाराराता रे बोन हारालेन

सासाङबेडा रे बोन जाततालालेन।’’

इस लोकगीत का अर्थ है-

‘‘हमारा जन्म हिहीड़ी-पिपीड़ी में हुआ

हमारा खोज खोजकामान में हुआ,

हमारा वंश विस्तार हाराराता में हुआ

और हमारे जाति का विभाजन सासाङबेडा में हुआ।’’

इस लोकगीत से ज्ञात होता है कि संथाल जनजाति अपना जन्म स्थान हिहीड़ी-पिपीड़ी को मानते हैं। हालांकि हिहीड़ी-पिपीड़ी के सही पहचान पर विद्वानों में मतभेद है लेकिन उत्पत्ति के उत्तर-पश्चिमी सिद्धान्त को मानने वाले विद्वान इसकी पहचान ‘बेबीलोन’ के रूप में करते हैं। उनका ये भी मानना है कि संथाल जनजातियों ने खैबर और बोलन दर्रे से होते हुए आर्यां से पहले भारत में प्रवेश किया था, लेकिन इस सिद्धान्त का खण्डन ई0टी0 डाल्टन4 करते हैं। आपने संथालों की उत्पत्ति का उत्तर-पूर्वी सिद्धान्त दिया है आपके अनुसार संथालों का आरंभिक निवास असम है। जनजातियों की मौखिक परंपरा पर आधारित उनका सिद्धान्त इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि पवित्र दामोदर नदी के रास्ते का अनुसरण करते हुए संथालों ने छोटानागपुर के पठार की राह पकड़ी।5

लेकिन रिज्ले ने उपरोक्त दोनों सिद्धान्तों को अस्पष्ट बताते हुए अस्वीकार कर दिया है।6 उनका मानना है कि बलूचिस्तान की ब्राह्मी लिपी और दक्षिण भारत की भाषा के बीच अनुमानित समानता के आधार पर द्रविड़ों के साथ संथालों के अन्तर्वाह की संकल्पना की गई है लेकिन यह धारणा गलत है क्योंकि संथाल जनजाति और द्रविड़ों के बीच पृथक्करण का मूल आधार भाषाई है। उनकी शारीरिक संरचना में किसी भी तरह की उल्लेखनीय अंतर नहीं है। रिज्ले विभिन्न भौगोलिक विशेषताओं जैसे कि इस समूह के मूल सदस्यों की शारीरिक संरचनाएँ, उनकी विशिष्ट भाषा, उनके द्वारा प्रयुक्त पत्थरों के औजार और टोटमवाद की उनकी अवधारणा आदि को ध्यान में रखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संथाल जनजाति भारत में रहने वाली उन सभी जनजातियों में प्राचीनतम है जिनके बारे में हमें किसी भी प्रकार की जानकारी उपलब्ध है। रिज्ले हिहीड़ी-पिपीड़ी की सही पहचान हजारीबाग जिले के उत्तर-पश्चिम में स्थित आहुरी परगना से करते हैं।

संथालों का वर्तमान निवास :

संथालों के मूल निवास स्थान से उखड़कर वर्तमान में आज जहाँ वे हैं के सम्बंध में सही जानकारी का लिखित स्रोतों के अभाव में केवल हम उनकी परम्पराओं एवं लोकगीतों के आधार पर अनुमान मात्र लगा सकते हैं। झूम खेती करते हुए आगे बढ़ने वाले संथाल अपने पीछे कोई उल्लेखनीय चिन्ह नहीं छोड़ पाए। जिसके कारण मानवशास्त्री उस रास्ते एवं दिशाओं को स्पष्ट करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं जिनसे होकर संथाल जंगल-महल पहुँचे। वीरभूम, बाँकुड़ा, मिदनापुर जो जंगल महल क्षेत्र में आते थे। दामिन-ए-कोह में संथालों के व्यवस्थापन से ठीक पहले का निवास स्थान था। भोगराय परगनैत का आख्यान बताता है कि हिहीड़ी-पिपीड़ी से हमारे पूर्वज हराता की ओर बढ़े जहाँ उनकी जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई और वह ‘खखार’ कहलाने लगे। इसके पश्चात् वह खैरागढ़ और हदेगढ़ी से होकर हजारीबाग जिले के चाई-चम्पा में जा बसे। यहाँ वह कई पीढ़ीयों तक रहे। मधु सिंह नाम के किसी जमींदार के अत्याचार ने उन्हें चाई-चम्पा छोड़ने पर मजबुर किया। इसके बाद संथाल छोटानागपुर की ओर बढ़े जहाँ वे मारांगबुरू (बड़ा पर्वत) मुण्डाओं के देवता के करीब आए। इसके बाद संथालों ने पटकुम में बसने का प्रयास किया, लेकिन यहाँ के भूमिजों ने उन्हें वहाँ से आगे की ओर धकेल दिया। इसके बाद संथाल जहाँ बसे वह क्षेत्र घने जंगलों से घिरा ‘साओन्त’ था यही से उन्होंने ‘संथाल’ नाम ग्रहण किया। यहाँ संथालों के कई गाँव बसे जो आज पूर्वी मानभूम जिले में पड़ता है।

संथालों के भ्रमण की कहानी की पुस्टि कई विद्वानों के विवरणों से होता है। प्राचीन काल में संथाल बंगाल के भीतरी हिस्से से चाई-चम्पा की ओर लगातार बढ़ते गए। मौखिक स्रोतों पर आधारित संथाल परंपराओं की कथा ‘मारे हापड़ाम कोरियाक काथा’ बंगाल के भीतरी भाग से उनके पश्चिमी क्षेत्र की ओर बढ़ने का संकेत देता है। चाई-चम्पा में महत्वपूर्ण संथाल कॉलोनी के होने का उल्लेख संथाल परम्पराएँ कराती हैं। यद्यपि इसका कोई जीवित साक्ष्य अब उपलब्ध नहीं है। संथाल परम्पराओं को आधार मानते हुए डाल्टन ने पाया कि चाई-चम्पा में एक ऐसा पुराना किला था जिसका मालिक एक संथाल राजा था। इस राजा ने मुहम्मद बिन तुगलक के सेनापति इब्राहिम अली के आक्रमण की खबर पाकर स्वयं को अपने परिवार के साथ समाप्त कर लिया था।7 दक्षिणी संथालों की किंबदंतियों एवं गाथाओं से इस घटना की पुष्टि कुछ हद तक होती है। जिसे जे. फिलिप ने एकत्रित किया तथा हन्टर की पुस्तक ‘एनाल्स ऑफ रूरल बंगाल’’ के परिशिष्ट ‘जी’ में प्रकाशित किया गया। बॉडिंग महोदय का कहना था कि ‘मैं इस बात पर विश्वास करने को विवश हूँ कि चाई और चम्पा जिसका उल्लेख किया गया है, वह छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र के हजारीबाग जिले में पाए गए हैं। यहाँ आकर संथाल जनजाति को उनकी परंपराओं के आधार पर पहचानना आसान हो जाता है।

18वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक संथाल रामगढ़ में बस चुके थे। इसके बाद वे सिंहभूम एवं मिदनापुर जिले में आकर बसे। यहाँ से संथालों ने उत्तर की ओर बढ़ना शुरू किया और तब तक बढ़ते रहे जब तक कि 18वीं सदी के अन्त में उनकी भ्रमणशील प्रवृति पर रोक लगाने एवं उनके व्यवस्थापन का सरकार की ओर से प्रयास आरंभ नहीं कर दिया गया। वीरभूम, बांकुड़ा और मिदनापुर जिले में संथालों की स्थिति की जांच-पड़ताल करते हुए मेकफरसन ने 1809 ई0 में पाया कि यद्यपि संथालों के पूर्वजों ने जंगलों को साफ कर गाँवों को बसाया था, फिर भी वे इस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं थे। यहाँ के मूल निवासी भुईयाँ थे तथा जंगल तराई क्षेत्र के वह संरक्षक भी थे। भुईयाँ जाति के उपद्रव एवं वहाँ के भू-पति वर्ग के अत्याचारों से तंग आकर 18वीं सदी के अन्त और 19वीं सदी के आरंभ में संथालों ने इस क्षेत्र से उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ना आरंभ किया तथा अन्त में ‘दामिन-ए-कोह’ में जा बसे, जहाँ इनको स्थायी रूप से बसाने का कार्य सुनियोजित तरीके से पूरा किया गया। बड़ी संख्या में अन्य क्षेत्रों से संथाल आकर यहाँ बसने लगे तथा कम्पनी सरकार ने उन्हें प्रोत्साहन दिया ताकि वे यहाँ के जंगल को साफ कर सकें।

18वीं सदी के अन्त में आकर संथालों के प्रवसन के सम्बंधित प्रामाणिक विवरण मिलने लगते हैं। 1795 में सर जॉनशोर का एक लेख ‘‘सम एक्स्ट्राऑर्डिनरी फेक्टस कस्टमस एण्ड प्रेक्टिसेज ऑफ हिन्दुज’’ जिसे 1795 ई. में ‘एशियाटिक रिसर्च’ में प्रकाशित किया गया था, इसमें संथालों के विषय में पहला विवरण मिलता है। इसमें संथालों को एक असभ्य एवं अशिक्षित जनजाति के रूप में साओन्तर के नाम से वर्णित किया गया है, जो कम्पनी अधिकृत सबसे कम सभ्य क्षेत्र रामगढ़ में रहते थे।8

‘दामिन-ए-कोह’ में संथालों के आगमन एवं प्रवसन की गति लगातार बढ़ती रही और संथाल, उड़ीसा, ढालभूम, मानभूम, पलामू, हजारीबाग, मिदनापुर, बाँकुड़ा और बीरभूम से आकर यहाँ बसने लगे थे। भागलपुर के कलेक्टर डुनबर के अनुसार 1836 ई. तक दामिन-ए-कोह में 427 गाँव बस चुके थे। 1851 में कैप्टेन शेरविल ने पाया कि मुर्शिदावाद, बीरभूम, राजमहल की पहाड़ी क्षेत्र संथालों के गाँवों से भर गए थे। बुचानन हैमिल्टन की पाण्डुलिपि दुमका में बसे ऐसे 500 संथाल परिवारों का उल्लेख करती है जिन्हांने अपना असली घर पलामू और रामगढ़ बताया है। उनके विषय में कहा जाता है कि वह जंगलों को साफ करने और उन्हें खेती के लिए प्रयुक्त करने में दक्ष होते हैं। उनकी इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कम्पनी सरकार ने अपने राजस्व में वृद्धि करने के लिए संथालों को ज्यादा-से-ज्यादा सुविधाएँ देकर बसाने का कार्य किया। इसी क्रम में कॉर्नवालिस ने 1793 में स्थायी बन्दोबस्त लागू किया तथा संथालों को विशेष सुविधा देकर उन्हें कम्पनी के प्रशासन के अधिन किया गया।

सदरलैंड की गणना के अनुसार 1819 तक संथालों ने गोड्डा सब डिवीजन में रास्ता बना लिया था और 1827 ई. तक इस क्षेत्र के पूरे उत्तरी भाग में फैल गए थे। 1836 से 1851 के बीच बड़ी संख्या में संथाल यहाँ बस गए। 1851 तक दामिन-ए-कोह में 427 गाँवों में 83,265 संथाल बस चुके थे।

संथाल संस्कृति

संथाल समुदाय की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था नीलगगन के समान विस्तृत, सागर के समान गंभीर, पहाड़ी नदियों के समान स्वच्छन्द एवं इन्द्रधनुष के समान रंगीन है। प्रकृति की गोद में जीवन बसर करने वाले संथाल जनजातियों की सांस्कृतिक विरासत इन्हें अन्य जातियों से पृथक करती है। इनकी अपनी भाषा, वेशभूषा, खान-पान के तरीके पर्व-त्योहार, नृत्य-संगीत एवं वाध्य यंत्र है जिससे इन्हें सहज रूप से पहचाना जा सकता है। संथालों की अपनी गरीमामयी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था है। आधुनिकता की खोखली एवं ढ़ोगी व्यवस्था में भी ये जनजाति अपनी संस्कृति को जीवित रखने में सफल रहे हैं।

भाषा एवं लिपि- संथाली भाषा संथाल जनजाति की मातृभाषा है। संथाली भाषा का नामकरण संथाल समुदाय के आधार पर पड़ा है यह आस्ट्रिक, आस्ट्रों एशियाटिक या आग्नेय शाखा की भाषा है। आस्ट्रिक शाखा भारतके आदिवासियों की सबसे बड़ी शाखा है। संथाली, आस्ट्रिक शाखा के अन्तर्गत आती है। संथाल अपनी भाषा को ‘होड़-रोड़’ कहते हैं। होड़ का अर्थ है आदमी या संथाल तथा रोड़ का अर्थ है बोली या भाषा। इस प्रकार सम्मिलित रूप से होड़-रोड़ का तात्पर्य है संथाली भाषा। बंगाली भाषी इसे ‘सांवताल’ नाम से अभिहित करते हैं। इसे ‘मांझी भाषा’ की संज्ञा भी प्राप्त है। उत्तर बंगाल में संथाली को ‘जंगली’ या ‘पहाड़िया भाषा’ भी कहते है, जबकि दक्षिण बंगाल और उड़ीसा में इसे ‘ठार’ भाषा कहते हैं।9 संथालों की मान्यता है कि संथाली भाषा ‘लिटा गोडेत’ और ‘मारांग बुरू’ द्वारा पिलचू हाड़ाम और पिचलू बुढ़ी को सिखाया गया था इसके माध्यम से ‘‘खेरवाल आड़ङ’’ (देव भाषा) की उत्पत्ति हुई। इसलिए संथालों की स्पष्ट धारणा है कि उनकी भाषा एक दैवी भाषा है।

आरंभ में संथालों की अपनी कोई लिपि नहीं थी वे अपनी भाषा की केवल मौखिक अभिव्यक्ति करते थे। अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् इसाई पादरियों द्वारा संथाली भाषा को रोमन लिपि प्रदान की गयी। आगे चलकर इसे देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगा। आज संथालों की अपनी स्वतंत्र समृद्ध लिपि है जिसके कारण संथाली भाषा, साहित्य और संस्कृति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व एवं पहचान है। भारत के चार राज्यों झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा असम में संथालों की धनी आबादी होने के कारण आज संथाली भाषा पाँच लिपियों देवनागरी, उड़ीया, बंगला, असमी और रोमन में लिखी जा रही है। इन लिपियों के बावजूद संथालों के पास स्वयं की लिपि है जो ‘ओल चिकी’ के नाम से जानी जाती है। जो संथाली भाषा के लिए ध्वनि मूलक दृष्टि से सटीक और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है। इस प्रकार संथाली लिपि बहुलिपि है।10

सामाजिक व्यवस्था- संथाल समाज पितृसत्तात्मक होता है। वंश परम्परा पिता की ओर से चलता है। पुत्र पिता का गोत्र पाता है। नातेदारी नियम पर आधारित सभी सामाजिक समूह परिवार, कुल समूह, गोत्र पितृपक्षीय है। विवाह के बाद लड़के अपनी पत्नी के साथ अपने ही घर में रहता है। लड़कियाँ पति का गोत्र पाती है। संथालों में विस्तृत एवं एकल दोनों ही परिवार होते हैं। विस्तृत परिवार का आकार बड़ा होता है क्योंकि इस परिवार में माता-पिता के अलावा लड़कों के परिवार तथा अविवाहित लड़कियाँ रहती है। किसी सम्पत्ति पर सबसे पहला अधिकार उसके पुत्रों का फिर अविवाहित पुत्रियों का और उसके बाद पट्टीदारों का होता है।

आर्थिक व्यवस्था- संथालों का आर्थिक जीवन अन्य जनजातियों की तरह अभावग्रस्त होता है। कृषि इनकी आजीविका का मुख्य आधार है। ये बड़े मेहनती और कुशल कृषक होते हैं। खेत का काम स्त्री एवं पुरूष दोनों मिलकर करते हैं। कृषि मानसून पर निर्भर रहती है। धान इनकी मुख्य खाद्य फसल है। मकई, मडुआ, गोंदली, दलहन, सुरगुज्जा, बाजरा आदि भी उपजाते हैं। ये जनजाति अर्थांपार्जन के लिए पशुपालन भी करते हैं। संथाल जनजाति गाय, भैंस, सुअर, भेड़, मुर्गी, कबूतर, बत्तक आदि पालते हैं। संथाल जड़ी-बूटी भी इकट्ठा करके दवाई बनाते हैं। शिकार और वन-उत्पादों का संग्रह अब कम महत्वपूर्ण रह गया है। फिर भी जंगली फल-फूल, कंद-मूल, साग-पात, ये भोजन के लिए एकत्रित करते हैं।

कुछ संथाल मजदूर के रूप में भी काम करते हैं। कुछ कृषि में मजदूरी करते हैं, कुछ खदानों और उद्योगों में और कुछ ईटा-भट्ठों, गृह-बांध, सड़क निर्माण कार्यां में लगे हैं। कुछ चाय बागानों में भी काम करने चले जाते हैं। गांव या आसपास रोजगार के सीमित अवसर होने के कारण ये जनजाति शीतकालीन फसल की कटाई के बाद तथा ग्रीष्मकालीन बोआई के बीच के कष्टकाल के दौरान कुछ महिनों के लिए बाहर निकल पड़ते हैं; जहाँ से वे मालगुजारी तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नगद धनराशि अर्जित कर लाते हैं।11 यह प्रवास प्रायः अस्थायी एवं अल्पअवधि के लिए होता है।

न्याय व्यवस्था- संथाल समाज में त्रिस्तरीय न्याय पद्धति प्रचलित है- (प) गाँव परिषद्, (पप) परगना परिषद्, (पपप) शिकार परिषद्। आज के सरकारी न्याय पद्धति के अनुसार क्रमशः निम्न कोर्ट, उच्च कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट कहा जा सकता है।12

गाँव परिषद् प्रत्येक गाँव में होता है, जिसके सदस्य गाँव के सभी वयस्क व्यक्ति होते हैं। परिषद् के प्रमुख व्यक्ति मांझी, पराणिक, जोग मांझी, जोग पराणिक तथा गोडेत होते हैं। इसके सम्मिलित समूह को ‘मोड़े होड़’ यानी ‘पाँच आदमी’ कहा जाता है। मांझी और पराणिक के पद वंशानुगत होते हैं। मांझी गाँव का प्रधान होता है और पंचायत का मुखिया भी होता है। पराणिक गाँव का उप प्रधान होता है। जोग माँझी गाँव का सरदार कहलाता है और जोग पराणिक सहायक सरदार होता है। गोडेत संदेश वाहक या दूत का काम करता है। न्याय अथवा दंड की व्यवस्था पंचों की सहमति पर आधारित है।

परगना परिषद, ग्राम परिषद से ऊपर होता है। यह पाँच मांझीयों की पंचायत है। जिसका सभापति परगनैत कहलाता है। परगना का सहायक दस मांझी और उसका संदेशवाहक ‘चकलादार’ कहलाता है। परगनैत साधारणतः दस पन्द्रह गांवों का सरदार होता है।

शिकार परिषद को सेन्दरा बैसी भी कहते हैं। इसके प्रधान को दिहरी कहा जाता है। इसकी बैठक एक या दो साल में एक बार कुछ दिनों के लिए हुआ करती है।

धार्मिक व्यवस्था-संथालों के धार्मिक विश्वास पर जीववाद, बोंगावाद, प्रकृतिवाद, यथार्थवाद, टोटम, टैबू, जादुई विश्वास, पूर्वज पूजा, बहुदेववाद की छाप है। धार्मिक विश्वास की दृष्टि से संथालों की तीन श्रेणियाँ हैं- 1. बोंगा होड़, 2. साफा होड़ तथा 3. उम होड़।

बोंगा होड़ सनातन संथालों को कहते हैं अर्थात् परम्परागत संथालों के बीच देवी-देवताओं, भूत-प्रेत आदि की पूजा अर्चना का विशेष स्थान है। इनके देवी-देवताओं में मारांग-बुरू जाहेर एरा, गोसांई एरा, सिम बोंगा आदि है, जिनकी पूजा अर्चना ये लोग ऐरोक्, हरियड़, इरी गुन्दली, नवाई, जान्थाड़, सोहराय, साकरात, मांग, बाहा आदि पर्व-त्योहारों पर करते हैं। इनके धार्मिक स्थल हैं- जाहेरथान, माँझीथान, गोडटन्डी आदि। माँझी थान गाँव के बीच होता है। जाहेरथान गाँव के बाहर साल के पेड़ों के पास होता है। साल पेड़ के नीचे तीन पत्थर होता है जो जाहेरएरा, मोड़ेको-तुरूयकों तथा मारांग बुरू के नाम से स्थापित होता है। संथालों के लिए पूजा-अर्चना नाइके करता है। नाइके का सहायक कुडम नाइके कहलाता है।

साफा होड़ सुधारवादी संथालों को कहते हैं। ये एक ईश्वर में विश्वास करते हैं तथा सात्विक ढंग से पूजा करते हैं। इनके बीच बलि देना तथा मदिरा ढालना पूर्णतः वर्जित होता है। उम होड़ ईसाई संथालों को कहते हैं। उम होड़ का अर्थ है नहाया हुआ आदमी। ये लोग परम्परागत बोंगा की उपासना नहीं करते है और न जातीय पर्व-त्योहारों में ही सम्मिलित होते हैं।

पर्व त्योहार- संथालों के सभी त्योहार सामूहिक होते हैं। गाँव का नाईके (पुजारी) सबकी ओर से व्रत रखता है तथा पुजा अर्चना करता है। इनके त्योहार के अलग-अलग समय निर्धारित हैं लेकिन तिथि निश्चित नहीं है। प्रत्येक गाँव वाले अपनी-अपनी सुविधानुसार त्योहार मनाते हैं। इनके पर्व त्योहार मनाने का तौर-तरीका बड़ा मनोरंजक एवं मनभावन होता है। उमंग, उत्साह और मौज मस्ती से ओत-प्रोत इनके पर्व त्योहार एवं उसके मनाने के विधि-विधान इनके जीवन जीने की कला की ओर संकेत करते हैं। इनके पर्व-त्योहारों की सबसे अलग एक विशिष्ट पहचान है। संथालों के पर्व-त्योहारों से संबंधित लोकगीत और लोक नृत्य भी मौसम के अनुसार बदलते रहते हैं। इनके प्रमुख त्योहारों में सोहराय, साकरात, बाहा, एरोक, हरियड़, जानथाड़ तथा दासांय प्रमुख है। इन त्योहारों में संथाल समुदाय बाहरी दुनिया से एकदम बेखबर होकर अपनी समस्त गतिविधियाँ स्वयं में तथा अपने समुदाय में ही केन्द्रीत कर देता है। इस अवसर पर पूरा समुदाय भोजन, मदिरा, नृत्य, संगीत, पूजा-पाठ और आमोद प्रमोद में पूरी तरह डूब जाता है।

जातीय संस्कार- संथालों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के संस्कार पाए जाते हैं- 1. जन्म से जुड़े संस्कार, 2. विवाह से जुड़े संस्कार तथा 3. मृत्यु से जुड़े संस्कार आदि इसके अलावा चड़ी संस्कार, कर्ण छेदन संस्कार, गोदना तथा सिखा संस्कार आदि कई छोटे-छोटे संस्कार भी होते हैं।

संथालों में बच्चे के जन्म के अवसर पर जानाम छटियार मनाया जाता है, जो लड़के के होने पर पाँच दिन तथा लड़की होने पर तीन दिन तक चलता है। इस दौरान गाँव में छूतक रहता है, जिसमें कोई पर्व-त्योहार या अन्य धार्मिक कार्य नहीं मनाए जाते। चाचो छटियार मनाया जा सकता है, जो एक प्रकार से बालक को समाज में सम्मिलित करने का संस्कार है। जिस बच्चे का चाचो छटियार नहीं हुआ होता उसकी मृत्यु होने पर उसे जलाया नहीं जाता। विवाह से पहले चाचो छटियार होना अनिवार्य है। अन्यथा विवाह सम्पन्न नहीं कराया जा सकता है।

संथालों में जन्म संस्कार के तहत बच्चों के नामकरण में लड़का होने पर उसको दादा का नाम दिया जाता है एवं लड़की होने पर दादी का। उसके बाद होने वाले लड़के को नाना का नाम और लड़की होने पर नानी का नाम दिया जाता है। नामकरण संस्कार में नीम की पत्ती और अरवा चावल का नीम दा-मण्डी (माड़-भात) बनाया जाता है और देवताओं को चढ़ाने के बाद गाँव के लोगों में बाँट दी जाती है। नीम दा मण्डी बनाने का अर्थ है कि जिस तरह नीम की पत्ती कड़वी होने के कारण उसको खाने के बाद देर तक नीम का तीतापन मुँह में रहता है, ठीक उसी प्रकार बच्चे का नाम भी बहुत दिनों तक याद रहता है।

संथालों में विवाह संस्कार से सम्बंधित कई रोचक एवं महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिलते हैं। संथालों में विवाह को ‘बापला’ कहा जाता है। इसके संख्या या प्रकार के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. रतन हेम्ब्रम13 ने विवाह के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन करते हुए संथाल विवाह को दो भागों में विभाजित करते हुए इसके 13 प्रकार बतलाए हैं, लेकिन इनमें मुख्य रूप से सामाजिक मान्यता प्राप्त चार प्रकार के ही विवाह प्रचलित हैं, अन्य प्रकार के विवाह परिस्थिति वश सम्पन्न किये जाते हैं। संथाल समुदाय में एक ही गोत्र के अन्दर विवाह वर्जित है। यह नियम आज भी समाज में कठोरतापूर्ण इस समुदाय में लागू है।

संथाल समुदाय में तलाक एवं पुनर्विवाह दोनों का प्रचलन है। विधवा विवाह भी मान्य है। संथाल समाज में वधु मूल्य का प्रचलन है जो 2.50 रूपया से लेकर हैसियत के मुताबिक होता है। इसे संथाल समाज में ‘गोनोङ पोन’ कहते हैं।

अन्य संस्कारों की तरह मृत्यु संस्कार भी संथाल समाज का प्रमुख अंग है। संथाल समुदाय में मृत्यु संस्कार चार चरणों में सम्पन्न किया जाता है- 1. शवदाहन या शवगाड़न, 2. तेलनहान, 3. झलहोर या जिलि´ डाहार तथा 4. भांडान। इन सब क्रियाओं में कहीं-कहीं क्षेत्रीय प्रभाव के कारण अन्तर होता है। भांडान मृत्यु संस्कार का अंतिम क्रिया है, जो ग्यारह दिन में या अपनी सुविधा के अनुसार कभी भी संपन्न किया जा सकता है।

वस्त्र आभूषण- संथालों की वेशभूषा साधारण होती है। अब परंपरागत पोशाक कुपनी, काँचा, पंची-पारहान्ड, दहड़ी, पाटका आदि का व्यवहार प्रायः नहीं होता है। इन दिनों संथाल पुरूष धोती-कुरता, गमछा तथा महिलाएँ, साड़ी आदि का प्रयोग करती हैं। आधुनिक वर्ग पैंट सर्ट का प्रयोग करने लगे हैं। गंजी एवं जूता-चप्पल का प्रयोग अब धड़ल्ले से होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी जुलाहे द्वारा बुने कपड़ों का खूब प्रचलन है साथ ही मिल के कपड़ों का प्रयोग बढ़ चला है। छोटे बच्चे अर्द्धनग्न घूमते हैं तथा लड़कियाँ फ्रॉक और सलवार-सूट भी पहनती है।

संथाल महिलाओं को आभूषण से बड़ा लगाव होता है। इनके गहने शंख-कौड़ी, काँसे-पीतल, ताँबा या चाँदी के बने होते है। गले में हँसली एवं सिकरी, कानों में पागरा, नाक में मकड़ी, बाँह में खागा, हाथों में सांखा चूड़ी-साकोम, पाँवों में बाँक-बाँकी और पैर की अंगुलियों में बटरिया इनके सामान्य आभूषण होते हैं; जो सस्ती धातु या चाँदी के भी बने होते हैं। कुछ संथाल महिलाएँ गीनी सोने की मकड़ी पहनती हैं। संथाल महिलाएँ गोदना के रूप में अमर श्रृंगार करती हैं जो मृत्यु के बाद भी उनके साथ जाता है। यह गोदना संथाल महिलाओं की विशेष पहचान है।

संथाल पुरूषों में भी आभूषण का शौक देखा जाता है। वे हाथ में चाँदी के टोडोर, गले में ताबीज, बाँहों में खागा तथा कानों में कुंडल पहनते हैं। संथाल समाज के बाएँ हाथ में सिका चिन्ह होता है। आजकल पढ़े-लिखे और सम्पन्न पुरूष कलाई में घड़ी बाँधते हैं और अंगूली में अंगूठी पहनते हैं।

खान-पान - खान-पान के मामले में संथाल जनजाति अन्य समुदाय से बहुत भिन्न नहीं होते हैं। कुछ स्तर पर इसमें विभिन्नताएँ देखी जाती है जो उनकी जाति या स्थान विशेष पर निर्भर करती है। इस समुदाय के लोगों का मुख्य भोजन चावल और प्रिय पेय हन्डी (हड़िया) तथा ताड़ी है। ये घी-दूध का प्रयोग नहीं के बराबर करते हैं। ये जनजाति शिकार किए गए पशु-पक्षी और मछली बड़े चाव से खाते हैं। कभी-कभी हाट-बाजार में लकठो, जलेबी आदि खाकर खुश हो जाते हैं। पर्व त्योहारों या विशेष अवसरों पर विशेष पकवान खाना पसंद करते हैं। संथाल जनजाति मुर्गा, बकरी, सूअर तथा अन्य जीव-जन्तुओं के माँस भी सहजता से भक्षण करते हैं। कुछ पशु पक्षी का माँस खाना इस समुदाय में वर्जित होता है। इसके अलावा जंगल के कंद-मूल, फल आदि भी इनके भोजन के अंग है।

अंधविश्वास- संथाल समाज में आज भी कई तरह के अंधविश्वास व्याप्त हैं। इस समुदाय का विश्वास है कि सारी परेशानियों और बीमारियों की जड़ बोंगा अर्थात् शैतान प्रेतात्माएँ हैं जिनको प्रसन्न या शांत रखने का उपाय ओझा-गुरूओं के नियंत्रण में है। संथालों में दो तरह के बोंगा होते हैं। पहला- ओड़ाक बोंगा तथा दुसरा- बाहरे बोंगा। अर्थात् घर का बोंगा तथा बाहर का बोंगा। बोंगा से संथाल समुदाय हमेशा भयभीत रहता है तथा इन्हें प्रसन्न रखने के लिए ओझा-गुरूओं के आदेश पर मुर्गा, बकरा, सूअर, हँड़िया तथा अन्य संबंधित वस्तुओं पर रूपये खर्च करने के लिए तैयार रहता है। संथाल समुदाय का मानना है कि बोंगा के नाराज होने पर तरह-तरह की बीमारियाँ, महामारी और अन्य परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इन अंधविश्वासों के तहत संथाल समाज में कई वर्जनाएँ पाई जाती हैं, जिसमें खासकर महिलाओं के लिए बंधन ज्यादा है। संथाल समाज की मान्यता के अनुसार महिलाएँ हल नहीं छू सकतीं, छप्पर नहीं छा सकतीं, तीर-धनुष नहीं छू सकतीं, धार्मिक स्थलों पर पूजा पाठ नहीं कर सकतीं, किसी का बाल नहीं काट सकतीं और न ही जाहेर (साल) वृक्ष पर चढ़ या असकी डालीयाँ तोड़ सकती है। पुरूषों के लिए भी कई क्रियाकलाप वर्जित हैं। जैसे गाँव की गली को जोतना, जाहेर वृक्ष को काटना, कच्चा चावल खाना और तेल के बर्त्तन को मिट्टी के ढ़क्कन से बन्द करना आदि। इसके अलावा और भी कई तरह की बंदिश और वर्जनाएँ हैं, जिनकों लेकर संथाल समाज की अपनी कुछ मान्यताएँ हैं। इन अंधविश्वासों के दुष्परिणाम से जो सबसे महत्वपूर्ण और मुख्य मुद्दा उभरकर सामने आता है वह है ‘डायन प्रथा’ जिसका आतंक इन दिनों संथाल परगना के चप्पे-चप्पे में फैला है। प्रतिदिन कहीं-न-कहीं डायन हत्या की खबर सुनने को मिल जाता है। संथालों में डायन के संबंध में प्रचलित विश्वासों के अनुसार डायन काला जादू करके किसी व्यक्ति की जान ले सकती है। वह किसी व्यक्ति के घर में भूत-प्रेत, साँप, बिच्छु इत्यादि को भेजकर विपत्ति उत्पन्न करती है।14 इन अंधविश्वासों के पीछे आज भी संथाल समुदाय में भूत-प्रेत, जादू-टोना, बोंगा, चुड़ैल इत्यादि दुष्ट आत्माओं के अस्तित्व के प्रति गहरा तथा अटूट विश्वास है।

नृत्य संगीत- संथाल नृत्य केवल धार्मिक एवं सांस्कृतिक कर्म ही नहीं होते, बल्कि वे जीवन को रंगीन बनाने के लिए भी होते हैं। संथाल जनजाति जीवन की जड़ता, खिन्नता दूर करने, चित्तवृत्तियों को उल्लासित करने तथा तन-मन की थकान मिटाने के लिए गीत-नृत्य का सहारा लेते हैं। संथालों में अनेक प्रकार के नृत्य प्रचलित है जो समय, स्थान और अवसर विशेष पर अलग-अलग होते हैं। कुछ नृत्य ऐसे होते हैं जिनमें केवल पुरूष लोग ही भाग लेते हैं। जैसे दसांय, रिंजा, टांडा और बिर लांगड़ें इसके अलावा नटवा, भिनसार तथा मोर आदि। बाकि अन्य नृत्य में स्त्री पुरूष दोनों भाग लेते हैं। जैसे सोहराय, दोङ, लांगड़े, बाहा, गोलवारी, डाहार, मातवार, दुरूमजाअ, बोने-बुनी, होड़ो रोहोय, दाराम दाक् आदि। ये सारे नृत्य भिन्न-भिन्न अवसरों के लिए हैं एवं इनकी लय, भाव भंगिमा, आंगिक चेष्टा तथा इनकी गति-लय का प्रवाह भी भिन्न-भिन्न है। ये सारे नृत्य सामूहिक है, जो शादि-विवाह, पर्व-त्योहार, धार्मिक पूजा-पाठ तथा फसल लगाने और काटने से लेकर शिकार करने आदि जैसे अवसरों पर भी किए जाते हैं।

संथाल समाज गीत को ‘सिरि´’ कहते हैं। जो कई प्रकार के होते है। जैसे- दोङ, सोहराय, दुरूमजाअ, बाहा, लांगड़े, रिजां, मतवार, टान्डा और काराम आदि। संथाली लोकगीतों में लौकिक सभ्यता, लौकिक आचार, व्यवहार, रीति-रिवाज और परम्पराओं का प्रतिबिम्ब झलकता है। संथाली लोकगीतों में जनजीवन के हर्ष और विषाद, सुख और दुख, आशा और निराशा, शांति और विद्रोह सभी की अभिव्यक्ति होती है। इसमें कल्पना भी अपना काम करती है, रस, वृत्ति और भावना भी। मौखिक परंपरा इनकी कसौटी है। खेत, नदी, जंगल, पहाड़, मैदान, घर सभी इसके निर्माणस्थल हैं। जीवन का सहज एवं नैसर्गिक आनन्द इसमें अन्तर्निहित है। स्त्री हो या पुरूष, बच्चे हो या बूढ़े, लोकगीत गाने में सभी की सहभागिता होती है।

संथाली लोकगीतों के गायन में किसी पंक्ति विशेष की पुनरावृति एक महत्वपूर्ण किया है। साधारणतः गीत की प्रथम या द्वितीय पंक्ति की आवृत्ति की जाती है। संथाली लोकगीतों में मनोभावों की अभिव्यक्ति कथोपकथन के रूप में भी होती है। गीत की प्र्रथम पंक्ति में प्रश्न या उपमा होती है तथा दूसरी पंक्ति में उत्तर या विषय की योजना रहती है। संथाल समुदाय नृत्य-संगीत के समय जिन पारंपरिक वाद्य-यंत्रों का उपयोग वे करते हैं उनमें प्रमुख है माँदल (तुमदाअ), नगाड़ा, ढोल, रहाट, बाँसुरी, तिरियों, बानाम, रामसिंगा, भेड़, कुरताल आदि।

चित्रकला एवं हस्तकला- संथाल जनजातियों में जादोपटिया चित्रकला का महत्वपूर्ण स्थान है। संथाल परगना में जादोपटिया चित्रकला की पुरानी परंपरा है। यह संथाल जनजाति की प्राचीन लोक चित्रकला शैली है आज यह चित्रकला लुप्त हो रही है। संथाल जनजातियों में ‘भित्ति चित्र’ का भी विशेष स्थान है। भित्ति चित्र का अर्थ है दीवार पर अंकित चित्र। संथाल समुदाय के घरों की दिवार पर लाल, गेरू, नीली, काली तथा सफेद मिट्टी से रंगी-पुती होती है जो काफी आकर्षक तथा मनभावन होती है। इन दीवारों पर फूल-पत्ती के साथ-साथ पक्षियों और जानवरों आदि के चित्र भी उभरे दिखाई पड़ते हैं जो काफी सजीव मालूम होते हैं। हस्तकला के मामले में भी संथाल समुदाय बहुत सिद्धहस्त होते हैं।15 ये लोग मुख्य रूप से दोना, पत्तल, चटाई, झाड़ू, तीर-धनुष, बाँसुरी, सायरा, रस्सी, झाबा, घोघी या पतरों, चातोम (बाँस या छाता) बन्दी (धान रखने हेतु) आदि बनाते है। इसके अलावा संथाल महिलाएँ ‘लेदरा’ बहुत सुंदर एवं कलात्मक ढंग से बनाती हैं।

अभिवादन की परंपरा- संथाल समुदाय में जोहार (अभिवादन) करने की एक अलग परम्परा है। संथाल समाज में प्रणाम करने से पहले अतिथि को लोटा में पानी भरकर देते हैं उसके बाद डोबोक- जोहार (अभिवादन) करते हैं और कुशल मंगल की खबर लेते हैं।16 संथाल समाज अभिवादन के तौर तरीकों में सभी जनजातियों से अधिक धनी है। संथाल समुदाय में अलग-अलग नातेदारों से अलग-अलग अभिवादन करते हैं। संथालों के बीच निम्न प्रकार के अभिवादन परम्परा पाई जाती हैं- 1. पुरूष और पुरूष के बीच अभिवादन, 2. पुरूष और महिला के बीच का अभिवादन, 3. महिला और महिला के बीच का अभिवादन, 4. समधि और समधि के बीच अभिवादन, 5. समधिन-समधिन के बीच का अभिवादन तथा 6. समधि और समधिन के बीच का अभिवादन आदि। इसके अलावा हम उम्र के लड़के दोस्त आपस में हाथ मिलाकर काम चलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि संथाल समाज सांस्कृतिक रूप से बहुत धनी है। उनकी एक अलग सांस्कृतिक पहचान है जो उन्हें अन्य जनजातियों से अलग करती हैं।

संदर्भ :-

1. चौधरी, पी०सी० राय, (1959); बिहार में 1857, विवरणिका पुनरीक्षण शाखा, पटना, पृ.सं. 1.

2. वही, पृ.सं. 1.

3. ब्रॉडले बर्ट, एफ०बी०, (1905); दि स्टोरी ऑफ एन इंडियन उपलैण्ड, स्मिथ एल्डर्स एण्ड कं. लन्दन, पृ.सं. 147.

4. डाल्टन, ई०टी०, (1973); डिस्क्रिप्टिव एथनोलॉजी ऑफ बंगाल, कलकत्ता, पुनर्मुद्रित, पृ.सं. 64.

5. ओमेली, एल०एस०एस०, (1910); बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स, संथाल कलकत्ता, पृ.सं. 40.

6. मुखर्जी, चारूलाल, (1962); दि संथाल्स, द्वितीय संस्करण, कलकत्ता, पृ.सं. 46.

7. रिज्ले, एच०एच०, (1891); दि ट्राईब्स कास्टस ऑफ बंगाल, भाग 7, कलकत्ता, पृ.सं. 224.

8. मैन, ई०एस०, (1867); संथालिया एण्ड दी संथाल्स, कलकत्ता, पृ.सं. 12.

9. घोष, अरूप, (1994); संथाली : ए लुक इनटू संथाल मरफोलॉजी, ज्ञान पब्लिसिंग हाउस, न्यू दिल्ली, पृ.सं. 2.

10. हेमब्रम, रतन, (2005); संथाली लोक गीतों में साहित्य और संस्कृति, माधा प्रकाशन, जाहेर टोला, बारीडीह, जमशेदपुर-17, पृ.सं. 64.

11. वर्मा, उमेश कुमार, (2009); झारखण्ड का जनजातीय समाज, सुबोध ग्रन्थमाला, पुस्तक पथ राँची, पृ.सं. 267.

12. साहु, चतुर्भुज, (2007); झारखण्ड की जनजातियाँ, के.के. पब्लिकेशन इलाहाबाद, पृ.सं. 49-50.

13. हेम्ब्रम, रतन-वही, पृ.सं. 39-40.

14. पाण्डेय, गया, (2007); भारतीय जनजातीय संस्कृति, कंसैप्ट पब्लिशिंग कम्पनी, नई दिल्ली, पृ.सं. 197.

15. वर्मा, उमेश कुमार, - वही, पृ.सं. 245-247.

16. सिंह, सत्येन्द्र कुमार, (2000); संथाल : जीवन एवं संस्कृति, एग्रेरियन एसिस्टेन्स एसोसिएशन, दुमका, पृ.सं. 27-29.


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