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सिन्धु घाटी सभ्यता के राजनैतिक सत्ता का स्वरूप

वीणा प्रिया

शोध-छात्रा

विश्वविद्यालय इतिहास विभाग

तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर


सिन्धु घाटी सभ्यता के राजनैतिक सत्ता का स्वरूप



सुत्कागेंडोर (बलूचिस्तान) से आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश), माण्डा (जम्मू) से दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक फैली यह सभ्यता केवल सांस्कृतिक एकता का ही उदाहरण है अथवा यह एक राजनैतिक इकाई का भी था, यह विचारणीय प्रश्न है। नगरों का सुरक्षा दीवाल से वेष्टित होना, उनमें गढ़ी और निचले नगर की योजना, मानक पर आधारित बाट तथा पैमानों का प्रयोग, सामान तथा प्रशासनिक लेखों को मुद्रांकित करने का विधान, आन्तरिक व्यापार के साथ ही मध्य एशिया, फारस की खाड़ी, मेसोपोटामिया आदि दूरस्थ क्षेत्रों से व्यापार- ये सब सिंधु सभ्यता के एक अत्यंत अनुशासित तथा विकसित सभ्यता होने के प्रमाण है।1

हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो एक दूसरे से लगभग 640 किमी की दूरी पर स्थित है। इन दोनों नगरों में एक दुर्ग और एक निचला नगर होने के साक्ष्य मिलने के कारण पिगट ने इनके हड़प्पा साम्राज्य की दो राजधानियां होने की संभावना व्यक्त की, हड़प्पा पंजाब के क्षेत्र की ओर मोहेंजोदड़ो सिंध क्षेत्र की। उन्होंने इस सिलसिले में ऐतिहासिक काल के कुषाण साम्राज्य का उदाहरण दिया है। कुषाण राजा दो राजधानियों - उत्तर में पेशावर और दक्षिण में मथुरा से राज्य करते थे। व्हीलर ने इस संदर्भ में नवीं शताब्दी में अरब शासन के अंतर्गत दो राजधानियों- मुल्तान और मंसूरा से शासन संचालन का उदाहरण दिया है, जो भौगोलिक दृष्टि से सिंधु सभ्यता के उपर्युक्त दोनों नगरों के निकट है। मुल्तान हड़प्पा के काफी समीप है और मंसूरा मोहेंजोदड़ो के। व्हीलर ने यह भी सुझाव दिया है कि पहले मोहेंजोदड़ो प्रमुख नगर रहा होगा किंतु जब भूगर्भशास्त्रीय कारणों से उसके इर्द-गिर्द झील बन गई और नगर ह्रासोन्मुख होने लगा तो ऐसी स्थिति में हड़प्पा नगर का राजनैतिक और आर्थिक महत्व बढ़ जाना स्वाभाविक था और वही सिंधु सभ्यता का प्रमुख नगर बन गया।2

बाद में सिंधु सभ्यता के ही अन्य स्थल कालीबंगा में उत्खनन किया गया। वहां पर भी हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो की तरह गढ़ी और निचले नगर के अवशेष प्राप्त हुए। कुछ पुरातत्वेत्ताओं ने इसके हड़प्पा साम्राज्य की तीसरी राजधानी होने की संभावना व्यक्त की जो राजस्थान और उसके समीपवर्ती क्षेत्र के प्रशासन के लिए उत्तरायी थी। इसी तरह गुजरात में लोथल को, जहां पर उत्खनन के फलस्वरूप उपर्युक्त नगरों की भांति गढ़ी और निचले नगर की रूपरेखा मिली है, हड़प्पा संस्कृति के सौराष्ट्र और समीपवर्ती क्षेत्र की राजधानी माना जा सकता है।

बाद में सिंधु सभ्यता के ही अन्य स्थल कालीबंगा में उत्खनन किया गया। वहां पर भी हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो की तरह गढ़ी और निचले नगर के अवशेष प्राप्त हुए। कुछ पुरातत्वेत्ताओं ने इसके हड़प्पा साम्राज्य की तीसरी राजधानी होने की संभावना व्यक्त की जो राजस्थान और उसके समीपवर्ती क्षेत्र के प्रशासन के लिए उत्तरदायी थी। इसी तरह गुजरात में लोथल को, जहां पर उत्खनन के फलस्वरूप उपर्युक्त नगरों की भांति गढ़ी और निचले नगर की रूपरेखा मिली है, हड़प्पा संस्कृति के सौराष्ट्र और समीपवर्ती क्षेत्र की राजधानी माना जा सकता है। शि. रंगनाथ राव के मतानुसार इस बात की अधिक संभावना है कि ये एक ही साम्राज्य की राजधानियां थीं और इस साम्राज्य का केन्द्र-स्थल सिंधु घाटी में था। वे इसे ‘विश्व में प्रथम महान् साम्राज्य की संज्ञा देते हैं जिसने विभिन्न जातियों और धर्म के लोगों को एक सूत्र में बांधा। लेकिन हाल ही के उत्खननों से सुरकोटड़ा में भी गढ़ी और निचले नगर की रूपरेखा स्पष्ट हुई है। यह स्थल लोथल से अधिक दूर नहीं और दो राजधानियों के इतने समीप होने की संभावना कम है।3

प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में मौयों का साम्राज्य विशाल था और यह सुदूर दक्षिण को छोड़कर सारे भारत और भारत के बाहर भी फैला था। इसके जनपद इसमें समाहित होकर प्रांतों के रूप में परिवर्तित हो गये और उनकी राजधानियों का प्रांतीय राजधानियों का दर्जा हो गया । क्या ऐसी संभावना हो सकती है कि ये उपरिलिखित सिंधु स्थल, कम से कम कुछ विशाल स्थल, सिंधु सभ्यता की प्रांतीय राजधानियां थीं। मार्टिमर व्हीलर, सांस्कृतिक एकता को प्रशासकीय अनुशासन का फल मानते हैं। वे सिंधु साम्राज्य की परिकल्पना करते हैं जो उनके अनुसार रोमन साम्राज्य से पूर्व सबसे उल्लेखनीय राजनैतिक प्रयोग था।4

कुछ का मत है कि सिंधु सभ्यता के साम्राज्य का केन्द्र बिन्दु मोहेंजोदड़ों था जा न केवल इस सभ्यता का ही अपितु अपने समय का विश्व में सबसे महान् और विशाल नगर था। बाकी प्रमुख नगर प्रांतीय राजधानियां रही होंगी और उसके अलावा कई कस्बे और अनेक गांव थे। धवलीकर का मत है कि मोहेंजोदड़ो तथा हड़प्पा में लोग कच्छ के क्षेत्रों में कच्चे माल के लिये जाते थे। बाद में उन्होंने वहां पर बस्तियां बसाकर वहीं उपकरण बनाना शुरू किया।5

मिस्र और मेसोपोटामिया के शासकों के नाम, उनके वंश तथा उनकी उपलब्धियों का ज्ञान उपलब्धियों का ज्ञान उपलब्ध लेखों (जिनका वाचन हो चुका है) से प्राप्त है। उन्हें शिल्पाकृतियों में मंदिर या नगर निर्माता के रूप में दर्शाया गया है। सिंधु सभ्यता में कोई भी ऐसी शिल्पाकृति नहीं जिसकी निश्चयपूर्वक राजा से पहचान की जा सके। यही नहीं भारत में ऐतिहासिक काल में भी राजा की शिल्पाकृतियां नही ंके बराबर है। मिस्र और मेसोपोटामिया राजाओं की भव्य कब्रों के लिये विख्यात है। मिस्र के पिरामिड संसार में प्रसिद्ध है मेसोपोटामिया के जगुरात जैसे स्मारक प्रभावशाली हैं। सिंधु सभ्यता के किसी भी स्थल से एक भी भव्य कब्र की जानकारी नहीं है और न वहां मिस्र और मेसोपोटामिया की भांति शवाधान के साथ कीमती वस्तुएं ही मिली हैं। चन्द्र कब्रों में ईंटों की बाढ़ या अधिक संख्या में मृद्भाण्ड मिले हैं, किंतु यह उन्हें राजकीय शवाधान पहचानने के लिये पर्याप्त नहीं है। इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि सिंधु सभ्यता के विभिन्न नगरों में शासन की बागडोर एक शक्तिशाली राजा के हाथों में न होकर संयुक्त रूप से श्रेष्ठी, पुरोहित, बड़े भूमिपति और धनी पशुपालकों के हाथ में थी। मौर्यकाल में पाटलिपुत्र नगर के प्रशासन के लिए 30 सदस्यों की परिषद् थी और गुप्तकाल में जिले के प्रशासन में श्रेष्ठी सार्थवाह और कुलिक की संयुक्त रूप से महत्वपूर्ण भूमिका थी।6

स्टुअर्ट पिगट ने बहुत पहले सिंधु सभ्यता के क्षेत्र के पुरोहित-राजा द्वारा शासित होने की बात की थी, लेकिन कई सिंधु नगरों के विशाल पैमाने पर उत्खनन किये जाने पर भी किसी भी स्थल पर मंदिर के होने के निश्चित साक्ष्य नहीं मिले और इसलिए इसे स्वीकार करने में संकोच होना स्वाभाविक था। लेकिन उसके पश्चात् कालीबंगा में गढ़ी के एक क्षेत्र में विशाल पैमाने पर अग्निगर्त और अग्निवेदिकाएं और दूसरे क्षेत्र में पुरोहितों के आवास का होना अनुष्ठानों की महत्ता और पुरोहितों के महत्व को उजागर करता है।7

केन्योर के मतानुसार शासक पुरोहितों और व्यापारियों की सहायता से शासन चलाता था। नगर राज्यों का उदय कृषि और व्यापारिक उन्नति का फल था। उनके अनुसार प्रमुख नगरों के बीच पर्याप्त दूरी है और इस बात की संभावना कम ही है कि उन सभी पर एक ही राजा का प्रभुत्व था। शायद प्रत्येक नगर-राज्य स्वतंत्र था। ऐतिहासिक काल में शाक्य, लिच्छवि, मल्ल आदि छोटे-छोटे गण राज्य थे और शायद सिंधु सभ्यता में, कम से कम कुछ क्षेत्रों में, इसी तरह की शासन प्रथा रही हो। इतना स्पष्ट है कि शासन तंत्र का जो भी स्वरूप रहा हो विकसित सिंधु सभ्यता के जीवन काल लगभग 700 साल तक पर्याप्त शांति रही और विभिन्न मानकों में निरंतरता बनी रही। वंशानुगत राजा होने की संभावना कम है। कुशल नेतृत्व का धनी नेता राजा के रूप में उभर सकता था। लेखन कला का ज्ञान और लिपि की समानता राज्य के एकीकरण में सहायक रही होगी।8

वाल्टर फेयर सर्विस विशाल हड़प्पा साम्राज्य होने की संभावना से इंकार करते हैं। उनके अनुसार सांस्कृतिक एकता प्रशासनिक एकता के आधार पर नहीं बल्कि पारंपरिक मूल्यों पर आधारित थी। कुछ जन समूह जो रक्त संबंध तथा विचारधारा से एक सूत्र में बंधे थे इसके शासन के लिए उत्तरदायी थे। विशाल साम्राज्य के विपक्ष में यह कहा जा सकता है कि सिंधु सभ्यता के उत्खनित स्थलों में प्राप्त सैनिक सामग्री अत्यल्प है। इसके आधार पर कम से कम इस बात की संभावना नहीं लगती कि किसी आक्रमणकारी ने इस सभ्यता के विशाल भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया था।9

यह सही है कि सिंधु सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त सामग्री में अनेक समानताएं हैं किंतु इनमें कुछ अंतर भी है। हड़प्पा और मोहेंजोदड़ों में मातृदेवी की अनेक मूर्तियां मिली हैं किंतु लोथल, धौलावीरा आदि गुजरात के क्षेत्रों में इनका लगभग अभाव है। धौलावीरा की गढ़ी की योजना अपने में अलग है। धौलावीरा को छोड़कर सौराष्ट्र तथा कच्छ में निचले नगर का अस्तित्व एकदम गौण है।10

ऐतिहासिक काल में छठी शती ई. पू. के उत्तरी भारत में सोलह (षोडश) राज्यों (जनपदों) तथा उनकी राजधानियों की जानकारी मिलती है। यदि हम सिंधु सभ्यता के विभिन्न क्षेत्रों में पाये गये प्रमुख नगर स्थलों को राजधानी माने तो, जैसा ब्रजवासी लाल ने इंगित किया है, राज्यों के होने की परिकल्पना की जा सकती है। मोहेंजोदड़ो को सिंध क्षेत्र की, हड़प्पा पंजाब क्षेत्र की, गांवेरिवाला चोलिस्तान क्षेत्र की, कालीबंगा राजस्थान क्षेत्र की, राखीगढ़ी उत्तरी हरियाणा की, बणवाली दक्षिणी हरियाणा की, धौलावीरा उत्तरी गुजरात की तथा लोथल दक्षिणी गुजरात की राजधानी माना जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक कालीन जनपद राजनैतिक इकाई थे किंतु उनमें सांस्कृतिक एकता थी। उत्खनन से प्राप्त भौतिक सामग्री- यथा काले चमकीले भाण्ड तथा अन्य भाण्ड, आहत सिक्के, विशिष्ट प्रकार की मृण्मूर्तियां इत्यादि प्रायः सभी जनपदों के विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुई है। एक संभावना यह हो सकती है कि सिंधु सभ्यता में अनेक राज्य थे तथापि उनमें सांस्कृतिक एकता थी। ऐतिहासिक काल में देखा गया कि बलशाली राजा ने बलहीन राजाओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने राजय में मिला लिया। ऐसा ही सिंधु सभ्यता के संदर्भ में भी हो सकता है। इनमें कुछ स्वतंत्र राज्य थे और कुछ स्वतंत्र राज्यों की अधीनता में सामंतों द्वारा शासित राज्य।

संदर्भ :

1. डॉ० किरण कुमार थपल्याल एवं डॉ० संकटा प्रसाद शुक्ल, सिन्धु सभ्यता, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, पृ०-168.

2. डॉ० किरण कुमार थपल्याल एवं डॉ० संकटा प्रसाद शुक्ल, पूर्वोउद्धित, पृ० 168-169.

3. वही, पृ०-169.

4. वही।

5. वही, पृ० 169-170.

6. वही, पृ०-170.

7. वही।

8. वही, पृ० 170-171.

9. वही, पृ०-171.

10. वही।


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