- rashmipatrika
सृष्टि प्रिया की कवितायेँ
सृष्टि प्रिया
हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
बेअदबी
नदी के बीच में जो चट्टान है
वह किसी मोम की मानिंद पिघल कर वहीं ढेर हो जाता है
और मालूम होता है वह जस का तस है।
मुझे उसी चट्टान की ढेर पर लिए चलो
और इस तरह प्रेम करो कि सूरज तारों की जद में आ जाए।
कपड़े तैर कर पानी में डूबते
किसी दूसरे प्रेमी तक पहुंच कर उसे सहारा देंगे।
मेरी सांसों की लय के साथ
मेरे स्तनों का उभार नदी की परछाईं बन जाएगा।
अपनी छाती की चौड़ाई में
मुझे इस तरह समेट लेना कि नदी कछुए के साथ अंतराल में चली जाए।
अपनी अंगुलियों से मेरे शरीर के हर हिस्से को
इस तरह छूना की सिहरन पैदा हो और पेड़ गिरा दे अपने सारे फूल।
फूल और पंखुड़ियों के बीच
जो बंद है हया का मेहराबदार
उसे खोल दो कि जैसे खुलते हैं दो पुरकशिश होंठ।
लोग, जो देखना चाहते हैं
और आवाज़ें बंद हो गई
मैंने बिना आहट के दस्तक दी।
लेकिन यह मेरी सोची हुई चाल नहीं थी, हुनर था।
पर्दे का फेब्रिक घटिया है
उस पार स्पष्ट दिखने लगा।
मैंने आंखें भींचनी चाही
दृश्य चुंबक की तरह था।
बिस्तर पर मांस का लोथड़ा हरकत कर रहा था, काले रंग का।
कमर के निचले हिस्से जैसा दिखने वाला
लेकिन सफेद, काले मांस में चिपकने लगा।
किसी ने मुझे खींच कर हटाया।
मैं वापस वहीं थी।
वे ब्रेड पर लगे चाकलेट की तरह लग रहे थे
हां, ये अच्छा संयोजन नहीं है।
मैं केचप के बोतल की तरह जैसे टेबल पर खड़ी रही थी।
कोई उन्हें आवाज लगाता रहा था
वे चौकन्ना नहीं हुए।
शाम के बाद रात हो गई।
जो बीमार थे वे मर गए।
जो जवान थे वे बुजुर्ग हो गए।
अब मेरी जगह पर्दे के पीछे कोई और था, भीतर की प्रक्रिया निरन्तर थी।
संभोग और सुंदरता की परिभाषा अब भी अलग है।
हर कोई नग्नता देखना चाहता है।
हर कोई पर्दे के पीछे नंगा है।
और हर पर्दे का फेब्रिक घटिया।